Quantcast
Channel: लेखनी/Lekhni
Viewing all 159 articles
Browse latest View live

प्रतिभा प्रोत्साहन प्रतियोगिताओं” एवं “वार्षिकोत्सव” का आयोजन

$
0
0

14-9-2014मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, जिला इकाई छिन्दवाडा द्वारा “प्रतिभा प्रोत्साहन प्रतियोगिताओं” एवं “वार्षिकोत्सव” का आयोजन स्थानीय उत्कृष्ठ विद्यालय छिन्दवाडा में ख्यातनाम साहित्यकार डा.कौशलकिशोर श्रीवास्तव (पूर्व सिविल सर्जन) की अध्यक्षता में तथा शिक्षा जगत की ख्यातनाम हस्तियां – श्री आर.एम. आनदेव (पूर्व प्राचार्य), श्री. बी.के.विद्यालंकार( पूर्व प्राचार्य), डा.श्री पी.आर.चंदेलकर ( प्राचार्य शास.स्वशासी महाविद्यालय) की गरिमामय़ उपस्थिति में संपन्न हुआ. इसी गौरवशाली मंच से जिले के गौरव, समाजसेवी, एवं वन्यप्राणी संरक्षक एवं ज्ञानज्योति उच्च.मा.विद्यालय के प्राचार्य श्री विनोद तिवारी तथा शिक्षा के क्षेत्र में नित नए सोपान गढने वाले तथा साहित्य के क्षेत्र में जिले का नाम रोशन करने वाले युवा रचनाकार श्री दिनेश भट्ट को शाल ओढाकर तथा श्रीफ़ल देकर “सारस्वत सम्मान” से सम्मानित किया गया.

समिति द्वारा आयोजित काव्यपाठ, साहित्यिक अंत्याक्षरी, वाद-विवाद तथा एकल लोकगीत गायन प्रतियोगिताओं में जिले के छात्र/छात्राओं ने बडी संख्या में उत्साहपूर्वक भाग लिया. समिति के अध्यक्ष श्री गोवर्धन यादव ने राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के क्रियाकलापों तथ उद्देश्यों पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए कहा कि” राष्ट्रभाषा हिन्दी संपूर्ण भारतवर्ष में संपर्क भाषा के रुप में बोली जा रही है. इतना ही नहीं, यह लगभग 165 विदेशी विश्वविद्यालयों में पढाई भी जा रही है. आज हिन्दी विश्व की तीसरी सबसे बडी भाषा के रुप में अपना स्थान बना चुकी है. सरकार भले ही इसे “राष्ट्रभाषा” का दर्जा नहीं दे पायी, परन्तु यह अपने बलबूते पर विश्व-भाषा बन चुकी है”. कार्यक्रम का संचालन समिति के कर्मठ सचिव श्री नर्मदाप्रसाद कोरी ने सफ़लतापूर्वक किया

श्री पी.आर.चंदेलकर ने अपने उद्बोधन में कहा-“देश के आजाद होने के पश्चात भाषाई ‍षडयंत्र के तहत अंग्रेजी को महत्व दिया जा रहा है. इस ‍षडयंत्र को हमें समझना होगा. हिन्दी ही एकमात्र ऎसी भाषा है जो हमारी संवेदनाओं को अभिव्यक्त कर सकती है.” श्री बी.के.विद्यालंकार ने कहा-“ हिन्दी हमें मातृभाषा, भारतीय संस्कृति, सभ्यता और मातृभूमि की किस तरह सेवा की जानी चाहिए, सिखाती है. श्री आनदेव ने कहा-“ हिन्दी के विश्वव्यापि प्रचार-प्रसार में कहीं शुद्ध हिन्दी विलुप्त न हो जाए. इसीलिए शुद्ध हिन्दी शब्दों का उपयोग भी आवश्यक है, अन्यथा हिन्दी अंग्रेजी और उर्दू की खिचडी बनकर न रह जाए.”. डा. कौशलकिशोर श्रीवास्तव ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा-“ हिन्दी एक लोकाश्रयी भाषा रही है. इसे कभी राज्याश्रय नहीं मिला, बावजूद इसके वह पूरे विश्व में तेजी से फ़ैल रही है”.

इस कार्यक्रम में जिले के साहित्यकार, पत्रकार, शिक्षाविद, समाजसेवी, एवं,प्रबुद्ध गणमान्य नागरिकों सहित बडी संख्या में श्रोताओं ने भाग लिया. समिति के वित्त-सचिव श्री संजय मोहोड ने अपनी सक्रीय भागीदारी देकर मंच की व्यवस्था को सुदृढ किया., वहीं कार्यक्रम के समापन पर सभी साहित्यकारॊ साहित विद्वतजनों के प्रति आभार प्रकट किया.

मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति,जिला इकाई छिन्दवाडा(म.प्र.) 480001                                                                                   

गोवर्धन यादव

(अध्यक्ष म.प्र.रा.भा.प्र. समिति)

 

 

समिति द्वारा आयोजित काव्यपाठ, वाद-विवाद, साहित्यिक अंत्याक्षरी तथा एकल लोकगीत गायन प्रतियोगिताओं में प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय स्थान प्राप्त छात्र/छात्राओं को स्मृति-चिन्ह, प्रमाणपत्र तथा कथा-सम्राट मुंशी प्रेमचन्द का साहित्य देकर सम्मानित किया गया.

इन्हें मिला पुरस्कार:-

देशभक्ति पर आधारित काव्य पाठ में प्रथम,द्वितीय तथा तृतीय स्थान प्राप्त प्रतियोगियों के नाम———–(प्रथम)—श्री फ़ैजान/शेख सब्बीर मंसूरी (द्वितीय) श्री गौरांगी मिश्रा (पुत्री) श्री राजेन्द्र मिश्रा राही (तृतीय) कु.अंकिता राने.

-विवाद प्रतियोगिता में पक्ष तथा विपक्ष में बोलते हुए प्रथम,द्वितीय तथा तृतीय स्थान प्राप्त प्रतियोगियों के नाम

-(पक्ष) संजीदा खान (प्रथम), आरती नागवंशी (द्वितीय)

(विपक्ष)—–मंयाम मिश्रा/जय वर्मा/ग्रेसी जैअन/ सौरभ खानवानी/मनीष कुमार/ आभिषेक कुमार———————————————————————————————-

साहित्यिक अंत्याक्षरी में प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय स्थान प्राप्त प्रतियोगियों के नाम———————–(प्रथम) आभिषेक (पुत्र? अशोक (२) द्वितीय श्री रोहित/अशोक श्रीवास

एकल लोकगीत गायन प्रतियोगिता में प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय स्थान प्राप्त प्रतियोगियों के नाम———-(प्रथम)-रोहित/अशोक-(द्वितीय) पल्लवी/बैसाखूलाल रजक(३) शिखा/गंगाराम सल्लाम  शेष अन्य छात्र/छात्राओं को प्रमाणपत्र देकर सम्मानित किया गया.

 

गोवर्धन यादव                                                              (अध्यक्ष. म.प्र.रा.भा.प्र.समिति,छिंदवाडा)

 

 

 

 

 


चाय की चुस्कियों में तुमः समीक्षाः संतोष श्रीवास्तव

$
0
0

tea cover page (3)

ताज़ी बयार चली तो है….

 

उत्तराखंड के हरे भरे परिवेश से आकर महानगर की कंकरीट और यांत्रिक दुनिया में प्रवेश करने वाली सुमीता प्रवीण केशवा का पहला काव्य संग्रह ‘चाय की चुस्कियों में तुम’ ताज़गी का एहसास कराता है। हर युग में कविता के मापदंड बद्ल जाते हैं। नये-नये प्रतीकों और बिंबों को लेकर कविताओं का सृजन होता है लेकिन अब कविता में जोखिम भी बढ़ गया है। बदलते परिवेश में कविता के धर्म को निभा पाना जटिल ही नहीं चुनौती भरा भी है। एक सौ बत्तीस पृष्ठों के इस काव्य संग्रह में कवयित्री ने यह चुनौती स्वीकार की है। वे एक ऐसे पुल से गुज़री हैं जो दोनों किनारों को जोडकर नदी की दुर्गमता खत्म करता है। इन कविताओं का एक अपना अलग संसार है. जहां किसी भी तरह के हस्तक्षेप को वे नकारती हैं। उनके इस संसार में यथार्थ के ठोस धरातल पर कल्पना के रंग भी बिखरे हैं,प्रेम का ज्वार भी है तो कटघरे में प्रेम भी है जो रूह की अदालत में खड़ा है। स्त्री की सच्चाईयां भी हैं।

एक नदी बहती है मुझमें भी/ तुम हौले से छू लेते हो/ तो तरंगित हो उठती है………प्रेम की इस पराकाष्ठा में जब भगीरथ का आगमन होता है तो कितने बहाने बन जाते हैं हर जगह प्रेम उद्दीपन के। लेकिन वे अपने ढंग से जीना चाहती हैं…बहने दो एक नदी / मुझमें भी गंगा की ही तरह……वे अपने हिस्से की जमीन पे,अपने हिस्से के आकाश पे अपनी तरह से चलना,उड़ना चाहती हैं लेकिन कहीं प्रेम के प्याली के छलक जाने, खाली हो जाने का डर भी है उनमें और इसलिए वे इस प्रेम को समूची कायनात में बिखेर देना चाह्ती हैं। वे अपनी गुज़र चुकी उम्र को भी प्रेम के स्पर्श में ढूंढती हैं…….तुम्हारे स्पर्श ने मेरी सोई हुई/ उम्र को जगा दिया जैसे / खुद को ढूंढने लगी मैं आईनों में कहीं……

सुमीता जी की कविताएं साहित्य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को व्यापक परिप्रेक्ष्य में रेखांकित करती है। कहीं वे निजीकरण की भेंट चढ़ चुके प्रगतिशील देश के युवाओं को लेकर चिंतित हैं……..भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद की संस्कृति में गले-गले तक निमग्न युवाओं का पहला हक बनता है अपने देश पे……वह देश जो बाज़ारवाद की आंधी में अब सुरक्षित नहीं है। पूरी दुनिया ही बाज़ार में ढल गई है जहां सब कुछ बिकाऊ है। युवाओं की सोच भी,उनके भीतर का तेज भी,दिमाग भी। कहीं कवयित्री पहाड़ों को लेकर चिंतित है और यह कहने पे मजबूर कि पहाड़ों की जवानी की कोई कहानी नहीं होती / खत्म हो जाती है पहाड़ों की जवानी/ दो रोटियों की तोड़ पानी में। ‘पहाड़ की औरत’ में वे ये कहने से नहीं चूकतीं कि पहाड़ की औरत देह का विमर्श नहीं जानती / न ही उसे कोई सरोकार है/ देह की आज़ादी से / उसे तो चाहिए सिर्फ भूख से आज़ादी। और इसी भूख से विवश एक मां अपनी बेटी को मायके आने से रोकती है क्योंकि वे कहती हैं- पहाड़ की मिट्टी पत्थर बन चुकी है/ और पाथरों में कहां उगती है रोटी/ मत आना चेली / अब तू मैत मत आना………

एक ओर वे स्त्री का जन्म लेना जरूरी समझती हैं जबकि वे बेटी के पैदा होने से सामंती पिता के विद्रोही तेवरों को भली भांति समझ रही हैं…….लेकिन पिता की मन:स्थिति का सारा समीकरण ठहर जाता है जब वे कहती हैं….सुनो, पिता के लिबास में/ छिपे हुए दंभी “पुरुष”/ यह अच्छी तरह जान लो/ और गांठ बांध लो/ कि तुम्हें जन्म देने के लिए मेरा [स्त्री] का जन्मना बेहद जरूरी है। तो दूसरी तरफ वे धरती की व्यथा कथा से पीड़ित भी। जो द्रौपदी की ही तरह अपने पांच पतियों आकाश,वायु,सूर्य,जल और चांद के बीच बंटने को मजबूर तो है लेकिन द्रौपदी की तरह किसी अर्जुन से प्रश्न नहीं कर सकती कि क्यों उसका बंटवारा किया गया/ बगैर उसके मर्जी के/ पांडवों के बीच…….

संग्रह में कुछ स्त्री विमर्श पर आधारित कविताएं भी हैं। ‘बड़ी हो गई हो तुम’ जिसमें वे लिखती हैं…..अम्मा बड़ी होना तो सिखाया तुमने/ अन्याय के विरूद्ध लड़ना/ क्यों नहीं सिखाया तुमने?/ सिखाया होता तो आज मैं ज़िंदा होती/ आज मैं ज़िंदा होती अम्मा……..’मां तू मुझसे’ कविता में वे कन्या भ्रूण हत्या के तहत मां की कोख से आवाज़ उठाती हैं…..मां तू क्यों मुझसे खफ़ा हो गई/ कोख तेरी मेरी कब्रगाह हो गई। ‘पता नहीं क्यों’ कविता में….स्त्री की स्वतंत्रता का/ गलत फायदा उठाने लगी हूं/ और खुद से ही अप्रसन्न रहने लगी हूं मैं। कहते हुए वे ढूंढती हैं स्त्री स्वतंत्रता का अर्थ और ‘सड़क के किनारे’ उस मजबूर औरत तक पहुंचकर वे ठिठक कर रह जाती हैं,जिसकी सूखी छातियों में दूध नहीं है फिर भी वह विवश है बच्चे पैदा करने के लिए क्योंकि अकेले मजदूर पति की कमाई से/ नहीं बुझ पाती है सबकी भूख/ कमाई के लिए और भी/ कई हाथों की जरूरत है/ इसलिए वह जनती है/ हर साल कमाई के लिए/ हाड़-मास के साधन…….यह कविता जिसका मुख्य सरोकार गरीबी रेखा के नीचे पल रहे मनुष्यों के लिए सत्ता की नैतिकता की धज्जियां उड़ाना है जो हमारे सामन्ती तथा बुर्जुआ समाज की सभ्यता तथा संस्कृति के अतल तल में विधमान है।

संग्रह का नाम ‘चाय की चुस्कियों में तुम’ इस नज़रिए से सार्थक बन पड़ा है कि चाय जहां स्फूर्ति और काम करने की ऊर्जा देती है वहीं उसकी कमी की तलब डिस्टर्ब भी करती है। कवयित्री जिस ‘तुम’ के संग तमाम कविताओं की शब्द यात्रा करती हैं….उस ‘तुम’ की तलब उनकी कविताओं की आत्मा बन गई है। इन कविताओं को सिर्फ कविता होने की वजह से नहीं, उसमें निहित गहरे और व्यापक प्रेम,सामाजिक आशयों के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए।

चाय की चुस्कियों में तुम [काव्य संग्रह] सुमीता केशवा

प्रकाशक- मानव प्रकाशन १३१,चितरंजन एवेन्यू

कोलकाता-७०००७३.

मूल्य-२००/रू.

 

 

साहित्य मंथन सृजन पुरस्कार 2013

$
0
0

हैदराबाद, 6 अक्टूबर, 2014 (प्रेस विज्ञप्ति).

joram yalam nabamसाहित्यिक सांस्कृतिक संस्था ‘साहित्य मंथन’ ने साहित्य, समाजविज्ञान और संस्कृति से संबंधित विविध सृजन, अध्ययन और शोध क्षेत्रों के लिए ‘साहित्य मंथन सृजन पुरस्कार’ प्रदान करने की योजना की घोषणा की है.

‘साहित्य मंथन’ के संरक्षक गुरुदयाल अग्रवाल ने बताया कि यह पुरस्कार साहित्य, समाजविज्ञान और संस्कृति के तीन ज्ञानानुशास्नों से संबंधित विषयों पर केंद्रित प्रकाशित ग्रंथों को एक एक वर्ष के क्रम से प्रदान किया जाएगा. 

चयन समिति की संयोजक डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने जानकारी दी कि समिति के निर्णय के अनुसार वर्ष 2013 के लिए साहित्य क्षेत्र का ‘साहित्य मंथन सृजन पुरस्कार’ अरुणाचल प्रदेश की हिंदी लेखिका डॉ. जोराम यालाम नाबाम द्वारा रचित कहानी संग्रह ‘साक्षी है पीपल’ के लिए घोषित किया गया है जो 8 नवंबर 2014 को हैदराबाद में आयोजित समारोह में लेखिका को प्रदान किया जाएगा. इस पुरस्कार के अंतर्गत 11 हजार रुपए की सम्मान राशि, प्रशस्ति पत्र, स्मृति चिह्न, अंगवस्त्र और श्रीफल सम्मिलित हैं.

-         डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा

संयोजक, चयन समिति

यात्री के ”खुला मंच”में संगीत, नाटक और शायरी का संगम

$
0
0

yatri group khula manch 5.10.14

शनिवार 4 अक्टूबर को मुम्बई के अँधेरी पूर्व स्थित रेलवे कालोनी के हाल में रंग संस्था यात्री थिएटर द्वारा ” खुला मंच” कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस बार खुला मंच की खासियत यह रही कि इस आयोजन में यात्री को एक नया साथी ‘तुम भी डॉट कॉम’ मिल गया। जिसके कारण उत्साह दुगना दिख रहा था। साथ ही दर्शकों का उत्साह उस समय चौगुना हो गया जब ये घोषित किया गया कि इस बार से ” खुला मंच” की सभी प्रस्तुतियों को यू ट्यूब पर भी देखा जा सकता है।

यात्री और अन्य प्रतिष्ठित संस्थाओं के 12 कलाकारों और रचनाकारों नें खुला मंच में अपनी कला का प्रदर्शन किया। पूर्वाभ्यास के युवा कलाकार विपिन गौतम द्वारा शेक्सपियर के मशहूर नाटक हेमलेट के एक अंश की प्रस्तुति से शुरुआत हुई। उसके बाद पूर्वाभ्यास के ही अमन वशिष्ठ ने अँधा युग नाटक का एक अंश प्रस्तुत किया। इप्टा की वरिष्ठ रंगकर्मी निवेदिता बोंथियाल और मीशा ने एक संवेदनशील कहानी को भाव और अभिनय के साथ पेश किया। उपस्थित दर्शकों की नज़र में ये नाट्य प्रस्तुतियाँ बहुत असरदार थीं। ‘मोहब्बतें’ फेम मशहूर गायक उद्भव ओझा नें सुरों का ऐसा समां बांधा कि पूरा हॉल तालियों की गडगड़ाहट से गूंज उठा। युवा गीतकार अविराम ने एक प्रेम गीत सुनाया। यात्री के कलाकार धर्मेन्द्र नें अपनी व्यंग्य रचनाओं पर दर्शकों को वाह वाह करने पर मजबूर कर दिया।

रंगकर्मी ओम कटारे रचित माँ के नाम चिट्ठी को सोनम सिंह ने प्रस्तुत किया।  अपनी गंभीर विषय वस्तु और सहज संवाद सम्प्रेषण के कारण यह चिट्ठी दर्शकों को अन्दर तक भिगो गई। इसके बाद ओम कटारे लिखित एक लघु नाटक को यात्री के कलाकारों सोनम, प्रशांत, राकेश, केया और समीक्षा ने पेश किया। इस प्रयोगधर्मी प्रस्तुति में शब्दों के उच्चारण और भंगिमा के माध्यम से समाज और देश के वर्तमान हालात की अदभुत झाँकी पेश की गई। दोनों का निर्देशन ओम कटारे ने ही किया था।

कार्यक्रम का संचालन रंगकर्मी अशोक शर्मा और रंगकर्मी परोमिता चटर्जी ने चिरपरिचित नोक-झोंक वाले अन्दाज़ में किया। कार्यक्रम के अंत में मशहूर कवि- शायर देवमणि पाण्डेय ने अपनी  शेरो-शायरी से श्रोता समुदाय को ऐसा लुत्फ़ंदोज़ किया कि सारा हॅाल ठहाकों और तालियों से गूँज उठा। खुला मंच की सफलता का अन्दाज इसी से लगाया जा सकता है कि पूरा हाल भरा हुआ था और दर्शक पीछे खड़े होकर कार्यक्रम का आनंद ले रहे थे।

चित्र-1 : ” खुला मंच” कार्यक्रम में (बांए से) रंगकर्मी ओम कटारे, समाजसेवी के.के.मित्तल, शायर देवमणि पाण्डेय, वरिष्ठ रंगकर्मी नवीन कुमार

चित्र-1 : ” खुला मंच” कार्यक्रम में यात्री, इप्टा और पूर्वाभ्यास के रंगकर्मी, रचनाकार एवं कलाकार

omkatare54@live.com,

yatritheatre@gmail.com

मैसूर में ”राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी भाषा : स्वरूप और संभावनाएँ”विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न

$
0
0

मैसूर, 29 अगस्त 2004

हिंदी अध्ययन विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय, मानसगंगोत्री, मैसूर में एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न हुई। उक्त संगोष्ठी का विषय ”राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी भाषा : स्वरूप और संभावनाएँ” था।

उद्घाटन सत्र में प्रारंभ में मनोज तथा रूपा ने वंदना गीत प्रस्तुत किया। उसके बाद विभाग की अध्यक्षा प्रो. प्रतिभा मुदलियार ने प्रास्ताविक भाषण दिया, जिसमें उन्होंने विषय का महत्व एवं प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला। प्रो. शशिधर गुडिगेनवर ने अतिथियों का स्वागत एवं परिचय कराया। उद्घाटक तथा बीज वक्ता प्रो. ऋषभदेव शर्मा जी दीप प्रज्वलन कर संगोष्ठी का उद्घाटन किया। तदुपरांत प्रो. प्रतिभा मुदलियार द्वारा हिंदी में अनूदित मराठी उपन्यास ”साईँ” ( मूल लेखक प्रो. विनोद गायकवाड) का लोकार्पण प्रो. ऋषभदेव शर्मा के करकमलों से संपन्न हुआ। प्रो. ऋषभदेव शर्मा जी ने लोकार्पित कृति ”साईं” पर अपना वक्तव्य दिया जिसमें उन्होंने आधुनिक भक्ति साहित्य में इस उपन्यास के महत्व का उल्लेख करते हुए अनुवाद की दृष्टि से सफल तथा सरस बताया। संगोष्ठी के विषय पर बीज वक्तव्य देते हुए प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने हिंदी के राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप के विविध पहलुओं पर प्रकाश डाला। उन्होंने हिंदी के राजनीतिक, सांस्कृतिक , भाषावैज्ञानिक, कोशवैज्ञानिक, अनुवाद, विज्ञापन तथा सिनेमा जगत एवं विदेशी स्वरूप पर प्रकाश डाला। उनका बीज वक्तव्य प्रभावी तथा ज्ञानवर्धक था। विभाग की अध्यापिका डॉ. वासंति जी ने धन्यवाद ज्ञापन किया। डॉ, रेखा अग्रवाल ने उद्घाटन सत्र का संचालन किया।

संगोष्ठी में दो विचार-सत्रों में विभिन्न कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों से आए प्रतिभागियों ने स्तरीय आलेखों की प्रस्तुति की। प्रो. सुशीला थॉमस, क्षेत्रीय निदेशक, केंद्रीय हिंदी संस्थान, मैसूर तथा प्रो. रामप्रकाश, एस. वी,यूनिवर्सिटी, तिरुपति ने विचार-सत्रों की अध्यक्षता निभाकर अपने प्रभावी वक्तव्य दिए। समापन समारोह में छात्रों तथा अध्यापकों ने अपनी प्रतिक्रियाएं दी। राष्ट्रगान के साथ संगोष्ठी का समापन हुआ।

चित्र परिचय –

मैसूर विश्वविद्यालय में संपन्न राष्ट्रीय संगोष्ठी के अवसर पर प्रो. विनोद गायकवाड के मराठी उपन्यास ”साईं” के हिंदी अनुवाद का लोकार्पण करते हुए प्रो. ऋषभ देव शर्मा. साथ में – डॉ. रेखा अग्रवाल, प्रो.शशिधर गुडिगेनवर,अनुवादिका प्रो. प्रतिभा मुदलियार, प्रो. सुशीला थॉमस एवं प्रो. राम प्रकाश.

प्रस्तुति – डॉ. रेखा अग्रवाल, प्राध्यापक, हिंदी विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय,मानसगंगोत्री, मैसूर.

राष्ट्रपति ने मशहूर कवि डॉ. केदारनाथ सिंह को ज्ञानपीठ पुरस्कार से किया सम्मानित _ आज तक से साभार‏

$
0
0

kedarnath

उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा, दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए.‘ ‘हाथकविता की ये लाइनें लिखने वाले मशहूर कवि डॉ. केदारनाथ सिंह को सोमवार देर शाम राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया.

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इस मौके पर कहा कि केदारनाथ ने अपनी कविताओं के जरिए हमें अनुप्रास और काव्यात्मक गीत की दुर्लभ संगति दी है. सिंह को संसद के पुस्तकालय भवन स्थित बालयोगी प्रेक्षागृह में 49वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इस मौके पर राष्ट्रपति ने कहा कि मेरी इच्छा है कि नई पीढ़ी भारतीय क्लासिक में गहराई तक उतरे.

पढ़िए केदारनाथ सिंह की कविता दाने‘… नहीं, हम मंडी नहीं जाएंगे खलिहान से उठते हुए कहते हैं दाने जाएंगे तो फिर लौटकर नहीं आएंगे जाते- जाते, कहते जाते हैं दाने अगर लौट कर आए भी तो तुम हमें पहचान नहीं पाओगे अपनी अन्तिम चिट्ठी में लिख भेजते हैं दाने इसके बाद महीनों तक बस्ती में कोई चिट्ठी नहीं आती.

प्रमुख आधुनिक हिंदी कवियों एवं लेखकों में से हैं। केदारनाथ सिंह चर्चित कविता संकलन तीसरा सप्तकके सहयोगी कवियों में से एक हैं। इनकी कविताओं के अनुवाद लगभग सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेज़ी, स्पेनिश, रूसी, जर्मन और हंगेरियन आदि विदेशी भाषाओं में भी हुए हैं। कविता पाठ के लिए दुनिया के अनेक देशों की यात्राएँ की हैं।

जीवन परिचय

केदारनाथ सिंह का जन्म 1934 में उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले के चकिया गाँव में हुआ था। इन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) से 1956 में हिन्दी में एम.ए. और 1964 में पी.एच.डी की। केदारनाथ सिंह ने कई कालेजों में पढ़ाया और अन्त में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए। इन्होंने कविता व गद्य की अनेक पुस्तकें रची हैं और अनेक सम्माननीय सम्मानों से सम्मानित हुए। आप समकालीन कविता के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। केदारनाथ सिंह की कविता में गाँव व शहर का द्वन्द्व साफ नजर आता है। बाघइनकी प्रमुख लम्बी कविता है, जो मील का पत्थर मानी जा सकती है।

साहित्यिक परिचय

यह कहना काफ़ी नहीं कि केदारनाथ सिंह की काव्‍य-संवेदना का दायरा गांव से शहर तक परिव्‍याप्‍त है या यह कि वे एक साथ गांव के भी कवि हैं तथा शहर के भी। दरअसल केदारनाथ पहले गांव से शहर आते हैं फिर शहर से गांव, और इस यात्रा के क्रम में गांव के चिह्न शहर में और शहर के चिह्न गांव में ले जाते हैं। इस आवाजाही के चिह्नों को पहचानना कठिन नहीं हैं, परंतु प्रारंभिक यात्राओं के सनेस बहुत कुछ नए दुल्‍हन को मिले भेंट की तरह है, जो उसके बक्‍से में रख दिए गए हैं। परवर्ती यात्राओं के सनेस में यात्री की अभिरूचि स्‍पष्‍ट दिखती है, इसीलिए 1955 में लिखी गई अनागतकविता की बौद्धिकता धीरे-धीरे तिरोहित होती है, और यह परिवर्तन जितना केदारनाथ सिंह के लिए अच्‍छा रहा, उतना ही हिंदी साहित्‍य के लिए भी। बहुत कुछ नागार्जुन की ही तरह केदारनाथ के कविता की भूमि भी गांव की है। दोआब के गांव-जवार, नदी-ताल, पगडंडी-मेड़ से बतियाते हुए केदारनाथ न अज्ञेय की तरह बौद्धिक होते हैं न प्रगतिवादियों की तरह भावुक। केदारनाथ सिंह बीच का या बाद का बना रास्‍ता तय करते हैं। यह विवेक कवि शहर से लेता है, परंतु अपने अनुभव की शर्त पर नहीं, बिल्‍कुल चौकस होकर। केदारनाथ सिंह की कविताओं में जीवन की स्‍वीकृति है, परंतु तमाम तरलताओं के साथ यह आस्तिक कविता नहीं है।[1]

मैं जानता हूं बाहर होना एक ऐसा रास्‍ता है जो अच्‍छा होने की ओर खुलता है और मैं देख रहा हूं इस खिड़की के बाहर एक समूचा शहर है

मुख्य कृतियाँ

कविता संग्रह

  • अभी बिल्कुल अभी
  • जमीन पक रही है
  • यहाँ से देखो
  • बाघ
  • अकाल में सारस
  • उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ
  • तालस्ताय और साइकिल

आलोचना

  • कल्पना और छायावाद
  • आधुनिक हिंदी कविता में बिंबविधान
  • मेरे समय के शब्द
  • मेरे साक्षात्कार

संपादन

  • ताना-बाना (आधुनिक भारतीय कविता से एक चयन)
  • समकालीन रूसी कविताएँ
  • कविता दशक
  • साखी (अनियतकालिक पत्रिका)
  • शब्द (अनियतकालिक पत्रिका)

 

विजय कुमार मल्होत्रा पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय,भारत सरकार

दिव्या माथुर के उपन्यास ‘शाम भर बातें’का लोकार्पण

$
0
0

बाएँ से दाएं: भगवान श्रीवास्तव ‘बेदाग़’, नरेश शांडिल्य, दिव्या माथुर, असगर वजाहत, कृष्णदत्त पालीवाल, कमल किशोर गोयनका, अजय नावरिया, लीलाधर मंडलोई, अनिल जोशी, अलका सिन्हा एवं प्रेम जन्मेजय

26 नवंबर, 2014, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर एनेक्सी. अक्षरम और वाणी प्रकाशन के एक संयुक्त आयोजन में ब्रिटेन की लेखिका, दिव्या माथुर, के उपन्यास ‘शाम भर बातें’ का लोकार्पण बड़ी धूमधाम के साथ संपन्न हुआ। कार्यक्रम की अध्यक्षता विख्यात हिंदी लेखक, शिक्षाविद, भाषाविद एवं प्रेमचंद मर्मज्ञ डॉ कमल किशोर गोयनका, केन्द्रीय हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष, ने की और लोकार्पण भारतीय ज्ञानपीठ के निर्देशक डा लीलाधर मंडलोई ने। इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे प्रसिद्ध नाटककार और लेखक प्रोफेसर असगर वजाहत, सान्निध्य मिला डा कृष्ण दत्त पालीवाल का. वक्ता थे डॉ प्रेम जनमेजय, लेखक एवं व्यंगयात्रा के सम्पादक; अनिल जोशी, प्रवासी दुनिया के सम्पादक और लेखक; एवं अजय नावरिया, लेखक और जामिला मिलिया इस्लामिया में हिन्दी के प्राध्यापक। युवा अभिनेता संकल्प जोशी ने उपन्यास के अंश का नाट्य पाठ पूरे उतार-चढ़ाव के साथ किया। जानी मानी लेखिका अलका सिन्हा का संचालन उत्कृष्ट रहा। यह कार्यक्रम वातायन साहित्य संस्था-लन्दन एवं प्रवासी दुनिया के सौजन्य से संपन्न हुआ।
अपने वक्तव्य में डा प्रेम जनमेजय ने कहा कि दिव्या जी की भाषा में विविधता है, प्रत्येक पात्र के अनुसार भाषा और चरित्र चित्रण किया गया है। भारतीय उच्चायोगों और दूतावासों के क्रिया कलापों पर उनकी टिप्पणी तल्ख़ है। उनकी आब्सरवेशन-पावर बहुत प्रभावी है। अजय नावरिया ने कहा कि यह उपन्यास एक विनोदपूर्ण ट्रेजडी है किन्तु यह केवल ऊपर से विनोदपूर्ण है; उसके भीतर एक व्यथा कथा है। इसमें व्यक्ति मनोविज्ञान का कुशल चित्रण है और दिव्या जी ने पुरूषों की मानसिकता का बड़ा सटीक चित्रण किया है।

डा कृष्ण दत्त पालीवाल ने कहा कि उन्होंने उपन्यास पर केवल एक सरसरी दृष्टि डाली है किन्तु उनके विचार में इसमें कोई बौद्धिक चिंतन नहीं है; केवल सपाटबयानी है किन्तु डा असगर वजाहत ने पालीवाल जी से असहमति प्रकट करते हुए कहा कि जीवन स्वयं अपने आप में विमर्श है; कोई भी लेखक को यह नहीं बता सकता कि वह क्या लिखे, कैसे लिखे। दिव्या जी के विमर्शों को देखने के लिए सही आँख चाहिए. डा लीलाधर मंडलोई ने भी डा पालीवाल से असहमति प्रकट की और कहा कि यह उपन्यास बदलाव का दस्तावेज़ है। अगर लेखक पालीवाल जी के सुझाव मानना तो यह उपन्यास दो कौड़ी का होता। उन्होंने कहा कि दिल्ली के उच्च वर्ग में भी वही स्थितियां हैं जो कि इस उपन्यास में वर्णित की गयी हैं; यहां की फार्म हाउस की पार्टियां भी ऐसी ही होती हैं। कथावस्तु के मानदंडों में अंतर आ चुका है जैसे कि विनोद शुक्ल की नौकर की कमीज़ आदि कहानियां कथा तत्व के रूढ़िवादी ढांचे से बाहर हैं।

अनिल जोशी ने कहा कि कथात्तत्व की अवधारणाएं बदल चुकी हैं। उपन्यास के केन्द्र में समूचा प्रवासी समाज है। लेखिका की व्यक्ति मनोविज्ञान व सामाजिक मनोविज्ञान पर गहरी पकड़ है। उन्होंने प्रवासी समाज के विभिन्न वर्गों को प्रामाणिक और प्रभावी चित्रण किया है। दिव्या माथुर प्रयोगधर्मी उपन्यासकार है। उनकी कहानी ‘पंगा’ ऐसा ही एक सार्थक प्रयोग है। इसी क्रम में ‘शाम भर बातें’ एक आस्कर विजेता फिल्म की तरह लगता है। दिव्या जी ने सामाजिक, पारिवारिक जीवन, हिंदी की समस्या, नस्लवाद, संस्कृति का खोखलापन, भारतीय दूतावास के अधिकारी, टूटते हुए परिवार इत्याति बहुत सी समस्याओं को उकेरा है। अभिमन्यु अनत की कहानी ‘मातमपुर्सी’ का ज़िक्र करते हुए डा गोयनका ने बताया कि प्रेमचंद की कहानियों में भी प्रवासी जीवन का चित्रण रहा है। ‘नीली डायरी’ का उद्धरण देते हुए, उन्होंने दिव्या जी की सृजनात्मक क्षमता की प्रशंसा।

इंडिया इन्टरनैशनल सेंटर के खचाखच भरे हौल में विदेश से आए हुए बहुत से मेहमान भी सम्मलित थे – डा अचला शर्मा, सुभाष और इंदिरा आनंद, कमला दत्त, अरुण सब्बरवाल, जय और महीपाल वर्मा एवं जय विश्वादेवा।  विशिष्ट अतिथियों में शामिल थे श्री वीरेन्द्र गुप्ता, सु. पद्मजा, नासिरा शर्मा, हरजेन्द्र चौधुरी, रमा पांडे, अमरनाथ वर्मा, शाहीना ख़ान, सीतेश आलोक, नरेश शांडिल्य, सीतेश आलोक इत्यादि।

खुला मंच में साहित्य, शायरी, एवं संगीत की शानदार प्रस्तुति‏

$
0
0

खुला मंच में साहित्य, शायरी, एवं संगीत की शानदार प्रस्तुति……….

तुमभी एवं यात्री प्रस्तुत खुला मंच-4 का आयोजन 6 दिसम्बर 2014 को हुआ जिसमें एक से एक बेहतरीन कलाकारों, गायकों, कवियों, कलाकारों एवं संगीतकारों ने अपनी-अपनी दिलकश प्रस्तुतियों से दर्शकों को मंत्र-मुग्ध कर दिया। फ़न और हुनर का कमाल कुछ ऐसा था कि इसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। रंगकर्मी अशोक शर्मा का संचालन भी काफ़ी रोचक रहा। इस अवसर पर पूर्वाभ्यास के वरिष्ठ रंगकर्मी नवीन कुमार और अभिनेत्री प्रेरणा विशेष रूप से मौजूद थे। चौथे खुला मंच में अपनी कला का प्रदर्शन करने वाले कलाकारों का ब्यौरा इस प्रकार है-

अपर्णा अपराजित (ग़ज़ल गायन), सरोज सुमन (ग़ज़ल गायन), आशुतोष सिंह ( लोक संगीत एवं भोजपुरी रॉक), विनोद गवार (सूफ़ी गायन), धर्मेन्द्र ( परसाई का व्यंग्य), क़ैस जौनपुरी (कहानी), राकेश रंजन (अभिनय), रवि यादव (व्यंग्य कविता), शेखर अस्तित्व (मुक्तक एवं गीत), पल्लवी राघव (कविता), अर्चना पांडेय (कविता), अमित मारू (ग़ज़ल), इरफान क़ुरैशी (ग़ज़़ल), वंशिका रायगागा (गीत)
देवमणि पांडेय (शायरी एवं समापन भाषण)

बिग बी की अदालत और क़स्मे-वादे जैसी सुपरहिट फ़िल्मों के निर्देशक श्री राकेश कुमार ने कवि- गीतकार देवमणि पांडेय को शॅाल भेंट कर उनका सार्वजनिक अभिनंदन किया। पाँचवा खुला मंच 3 जनवरी 2015 को हमेशा की तरह शाम 6 से 8 बजे तक मुम्बई के उपनगर अँधेरी पूर्व में पश्चिम रेलवे के सोशल वेलफेयर हाल में होगा। अवश्य पधारें। अगर आप कुछ मंचित करना चाहते हैं तो 25 दिसम्बर से पहले हमें सूचित करें।

call us…09820049654 / 09321027102…

for more details visit:www.tumbhi.com/khulamanch.

देवमणि पांडेय : शायर-फ़िल्म गीतकार (मुम्बई)
Ph :+91- 98210-82126
Email : devmanipandey@gmail.com
Blog:http://devmanipandey.blogspot.com/
https://www.facebook.com/devmani.pandey.3


लोकार्पणः’आसमानी आँखों का मौसम ‘

$
0
0

 

khabar“दुःख सन्तोष श्रीवास्तव की कहानियों का स्थाई भाव है ।उन्होंने दुःख को जिया है और ज़िन्दगी के कई रंग इनकी कहानियों में शिद्दत के साथ महसूस किये जा सकते हैं ये बातें सूरज प्रकाश ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में संतोष श्रीवास्तव के कहानी सन्ग्रह ‘आसमानी आँखों का मौसम ‘ के लोकार्पण के अवसर पर कहीं ।यह कार्यक्रम मणि बेन नानावटी महिला महाविद्यालय में आयोजित किया गया ।
                     लोकार्पण समारोह में दिल्ली से पधारे ‘पाखी ‘ के सम्पादक प्रेम भारद्वाज ने सन्तोष की कहानियों में भाषा के सहज प्रवाह को रेखांकित करते हुए कहा कि किसी रचना को पढ़ते हुए यदि किसी बड़ी घटना का स्मरण हो आये तो वह सफल रचना मानी जाती है ।सन्ग्रह की कहानियों में सब तरफ आग है लगी हुई,अंकुश की बेटियां ,नेफ्र्टीटी की वापिसी ऐसी ही कहानियाँ है ।कहानियों के संग संग पत्रकार की समग्र दृष्टि भी उनके लेखन की ख़ासियत है ।विशेष अतिथि के रूप में ‘दमखम ‘ के सम्पादक वरिष्ठ कथाकार मनहर चौहान ने लेखिका को उनके निखरते लेखन के लिए बधाई दी ।मॉरीशस के प्रख्यात साहित्यकार राज हीरामन ने अपना बधाई सन्देश भेजा जिसका वाचन किया गया ।
            सुमिता केशवा ने सरस्वती वन्दना के साथ साथ सन्तोष श्रीवास्तव के व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला । जहाँ एक ओर रायपुर से आई मधु सक्सेना ने कहा कि सन्तोष की कहानियां साक्षी भाव से नहीं पढ़ी जा सकती उसमे डूबना ही होता है ,वहीँ लेखिका ने यह स्वीकार किया कि वे कथ्य को पूरी सामर्थ्य,सहजता और संवेदनशीलता से कहानियों में ढालने की कोशिश में बार बार अपने लिखे में डूबती उतराती हैं ।
                      डा. रवीन्द्र कात्यायन द्वारा संचालित  इस कार्यक्रम में महानगर के लेखक धीरेन्द्र अस्थाना ,कमलेश बक्शी ,कैलाश सेंगर ,सिब्बन बैज़ी  ,मधु अरोड़ा हस्ती मल हस्ती ,उमाकांत बाजपेयी ,प्रेमजनमेजय तथा विश्व मैत्री मंच की सभी सदस्याएं ,सहित ,सम्पादक ,पत्रकार ,मिडिया के लोग उपस्थित थे ।
                     प्रस्तुति ~सुमिता केशवा

“अँखियाँ पानी पानी ”हिन्दी में भक्ति साहित्य की इकलौती कृति

$
0
0

“अँखियाँ पानी पानी ” हिन्दी साहित्य जगत में भक्ति की इकलौती कृति है , ये शब्द थे पूर्व शिक्षा मंत्री एवं इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर डा . नरेन्द्र कुमार सिंह गौर के । उन्होंने श्रीमती विजयलक्ष्मी विभा को अद्वितीय रचनाकार बताया और कहा कि उन्होंने अपनी लेखनी से समाज के हर वर्ग को राह दिखाने का प्रयास किया है । श्री गौर ने कहा कि साहित्य समाज का सही दर्पण है जिसे उन्होंने सही स्वरूप में पेश किया है । वे 29 जून सोमवार को अखिल भारतीय महिला रचनाकार समिति के तत्वावधान में निराला सभागार में आयोजित एक भव्य समारोह में बोल रहे थे । कार्यक्रम का शुभारंभ महाकवि निराला के पौत्र श्री अखिलेश त्रिपाठी के द्वारा वाणी वंदना से हुआ । तत्पश्चात श्रीमती विजयलक्ष्मी विभा की कालजयी पुस्तक “अँखियाँ पानी पानी ” एवं उस पर डा. पदमा सिंह के निर्देशन में सुश्री नलिनी शर्मा द्वारा किये गये शोध प्रबन्ध “अँखियाँ पानी पानी में प्रेम और दर्शन ” का लोकार्पण हुआ ।
लोकार्पण के पश्चात विभाजी का भव्य अभिनंदन एवं देश के विभिन्न अंचलों से आई हुईं महिला रचनाकारों जिनमें मंजुरानी (दिल्ली) , रसवती खरे (बांदा) , चकोरी खरे (शहडोल) , कुमकुम शर्मा (संपादक उत्तर प्रदेश , लखनऊ) , श्रीलता शालू , (कटनी) एवं डा. रमा सिंह (इलाहाबाद ) का शाल उढा कर सम्मान किया गया ।
सुश्री अँशुरूपा खरे ने “अँखियाँ पानी पानी ” की संगीतमयी प्रस्तुति से जनसमूह को मंत्र मुग्ध कर दिया तथा डा. शशि जौहरी , डा. मिथिलेश कुमारी शुक्ल एवं कविता उपाध्याय ने पुस्तक के ही भजन गाये ।
डा. राजकुमार शर्मा ने विजयलक्ष्मी विभा की रचनाओं पर प्रकाश डालते हुये उन्हें “राष्ट्र भाषा गौरव ” की संज्ञा दी और कहा कि विभा जी का साहित्य की हर विधा पर पूर्ण अधिकार है । उन्होंने “अँखियाँ पानी पानी “जैसी महत्वपूर्ण कृति देकर साहित्य में एक नई भक्ति धारा प्रवाहित की है । उनकी रचनाओं में मीरा , महादेवी , सुभद्राकुमारी चौहान की काव्य-त्रिवेणी का पावन संगम स्थल है । उनकी रचनाओं की महान विद्वानों , समीक्षकों , संपादकों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की है ।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग की पूर्व अध्यक्ष डा. राजलक्ष्मी वर्मा ने विभा जी के भजन संग्रह को अद्वितीय कृति बताया और अपने पिताश्री स्व. डा. रामकुमार वर्मा के सान्निध्य में बीते उन पलों की स्मृतियों को ताजा किया जिनमें विभा जी उनके साथ होती थीं और कवि गोष्ठियों के दौर चला करते थे ।
वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार श्री जगदीश किंजल्क ने कहा कि विभाजी में काव्य सृजन की अनूठी प्रतिभा है । साहित्यकार मंजूरानी ने विभाजी के भजन संग्रह की भूरि- भूरि प्रशंसा की । डा. मिथिलेश कुमारी शुक्ला ने साहित्य क्षेत्र में विभाजी के योगदान की प्रशंसा करते हुये महिलाओं के आगे आने पर जोर दिया ।
पूर्व प्राचार्य डा सुरेन्द वर्मा ने अँखिया पानी पानी की विस्तृत समीक्षा की और कहा कि इस पुस्तक की गुणवत्ता को वही समझेगा जो इसमें डूब कर इसका अध्ययन करेगा । पूर्व प्रधानाचार्या डा. शारदा पाण्डेय ने कहा कि भक्ति साहित्य में हिन्दी की यह प्रथम कृति है । इसे महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाना चाहिये ।
विभा जी ने अपने लेखन से जुडी यादें ताजा की । अंत में एक कवि गोष्ठी हुई जिसमें तमाम कवि और कवयित्रियों ने काव्य पाठ कर वातावरण को सरसता प्रदान की । श्रीमती चकोरी खरे एवं रसवती खरे ने विभा जी के कृतित्व पर कविताएँ पढीं और श्रीमती कृष्णा साही ने आभार ज्ञापित किया । कार्यक्रम में, सौम्या मिश्रा, तान्या , अनमोल खरे ,कार्तिक , अवि खरे विशेष सहयोगी रहे । कार्यक्रम की प्रचारमंत्री नीता मिश्रा , उमा सहाय , किरण जौहरी , अंजनी सिंह उपस्थित रहे ।
———————————————————————————————-
प्रस्तुति -जगदीश किंजल्क

 

जगदीश किंजल्क 
संयोजक: दिव्य पुरस्कार 
साहित्य सदन,145-ए,
सांईनाथ नगर ,
सी-सेक्टर, कोलार रोड,
भोपाल-462042
संपर्क-09977782777 / 0755-2494777

साहित्य का महातीर्थ हिन्दी भवन भोपालःलेखनी जून/ जुलाई15

$
0
0

बाइसवीं पावस व्याख्यानमालाः एक रपट

-गोवर्धन यादव

 

साहित्य का महातीर्थ हिन्दी भवन भोपाल. हिन्दी भवन भोपाल में आयोजित बाईसवीं पावस व्याख्यानमाला में, हिन्दी साहित्य के गौरव कवि प्रदीप एवं डा.शिवमंगल सिंह “सुमन” की जन्मशताब्दी समारोह पर केन्द्रीत त्रि-दिवसीय समारोह ( 17से 19 जुलाई2015) विशाल जनसमूह की उपस्थिति में, अपनी संपूर्ण भव्यता और गरिमा के साथ सानन्द संपन्न हुआ. यह वह अवसर था जब स्वयं देवराज इन्द्र अपने अनुचरों (मेघों) की उपस्थिति में जल बरसा रहे थे. भीषण गर्मी और उमस से आतप्त तन और मन दोनों खिल से जाते हैं. मौसम खुशनुमा हो उठता है. इस प्रतिष्ठा समारोह में कवि प्रदीप की सुपुत्री मितुल प्रदीप, सुमनजी के सुपुत्र कर्नल अरूणसिंह सुमन, धर्मयुग के संपादक रहे प्रख्यात साहित्कार स्व. धर्मवीर भारतीजी की पत्नि श्रीमती पुष्पा भारतीजी, रमेशचन्द्र शाहजी, डा प्रभाकर श्रोत्रियजी ,डा.प्रमोद त्रिवेदी, डा दामोदर खडसे, ध्रुव शुक्ल, डा विजय बहादुर सिंह,,डा श्रीराम परिहार आदि एवं महिला कथाकारों सहित देश के लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकार-लेखक-कवि-चित्रकार-संपादक एवं पत्रकार बडी संख्या में उपस्थित थे विगत बाईस वर्षों से अनवरत आयोजित की जा रही पावस व्याख्यानमाला के अलावा शरद-व्याख्यानमाला, वसन्त व्याख्यानमाला तथा अन्य होने वाले साहित्यिक अनुष्ठानों की अनुगूंज देश के कोने-कोने में सुनी जा सकती है. यदि इस नगरी को साहित्य का महातीर्थ की संज्ञा से अलंकृत किया जाए तो आतिशयोक्ति नहीं होगी. हिन्दी भवन भोपाल में लगभग पूरे वर्ष साहित्यिक अनुष्ठान आयोजित होते रहते हैं. इन आयोजनों के बारे में जानने के साथ ही, हम हिन्दी भवन की स्थापना तथा अन्य आयोजनों के बारे में, संक्षिप्त जानकारी भी प्राप्त करते चलें, तो उत्तम होगा. मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल, जहाँ वह अपने विशाल ताल के लिए जगप्रसिद्ध है. इसके अलावा यहाँ बहुत कुछ है देखने के लिए-. जैसे लक्ष्मीनारायण मन्दिर, मोती मस्जिद, ताज-उल-मस्जिद, शौकत महल, सदर मंजिल, पुरातात्विक संग्रहालय,भारत भवन,इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय, भीमाबेटका, भोजपुर. इनके अलावा श्यामला हिल्स पर स्थित है गांधी भवन,मानस भवन और इन दोनो भवनों के बीच स्थित है साहित्य का महातीर्थ हिन्दी भवन. संभवतः भारत का यह एक मात्र ऎसा स्थान है जहाँ होली के पावन पर्व पर शहर के तथा बाहर से आए हुए साहित्यकार एकठ्ठे होकर रंग-बिरंगे त्योहार को सौहार्द के साथ मनाते हैं. यह वह स्थान है जहाँ दीपवाली जैसे त्योहार पर सभी साहित्यकार इकठ्ठा होकर दीपपर्व मनाते हैं.यह वही स्थान है जहाँ पर ऋतुओं के अनुसार पावस व्याख्यानमाला, शरद व्याख्यानमाला, वसन्त व्याख्यानमाला का आयोजन किया जाता है. इसके अलावा हिन्दी दिवस पर साहित्यिक आयोजन आयोजित किए जाते हैं. हिन्दी से इतर जो साहित्यकार अपनी साहित्य-साधना कर रहे हैं, उन्हें भी यहाँ आमंत्रित कर उनका सम्मान किया जाता है.अतः यह कहा जा सकता है कि हिन्दी भवन भोपाल देश का एकमात्र ऎसा स्थान है जहाँ पूरे वर्ष भर साहित्यिक आयोजन बडॆ पैमाने पर आयोजित किए जाते है. शायद ही कोई ऎसा साहित्यकार होगा, जो यहाँ न आया हो. सभी ने अपनी उपस्थिति से इस भवन के प्रांगण को गुलजार बनाया है. पावस व्याख्यानमाला अपने आपमें एक ऎसा अनूठा आयोजन है, जिसमें भारत के कोने-कोने से साहित्यकार आकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं और अपने आपको अहोभागी मानते हैं. पावस व्याख्यानमाला एक ऎसी अनूठी व्याख्यानमाला है जो प्रत्येक वर्ष के माह जुलाई में आयोजित की जाती है. यह वह समय होता है जब समूचा आकाश बदलॊं से अटा पडा होता है या बादलों का जमघट होना शुरू होता है. बादल तो खूब आते हैं,लेकिन बरसते नहीं हैं. शायद उन्हें इस बात का इन्तजार रहता होगा कि कब व्याख्यानमाला शुरू होती है? जैसे ही इसकी शुरूआत होती है, वे जमकर बरस उठते हैं. भीषण गर्मी और उमस के चलते जहाँ प्राण आकुल-व्याकुल हो रहे होते हैं, बादलों के बरसते ही राहत मिलना शुरू हो जाती है. मन प्रसन्नता से झूम उठता है. जैसा कि आप जानते ही हैं कि एक नवम्बर 1956 को नए मध्यप्रदेश का गठन हुआ और पं रविशंकर शुक्ल प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. ठीक इसी समय समिति का कार्यालय जो इन्दौर में स्थित था, भोपाल स्थानांतरिक हुआ और राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के कार्यों में गति मिलती गई. हिन्दी के प्रति उत्कट प्रेम रखने वाले पंडितजी ने हिन्दी भवन के लिए सवा एकड भूमि आवंटित कर दी. कालांतर में म.प्र. के जो राज्यपाल और मुख्यमंत्री आए, उन सबका स्नेह और सहयोग मिलता गया. दानदाता भी पीछे कहाँ रहने वाले थे, उन्होंने ने भी इस के निर्माण में तन-मन-धन से सहयोग दिया. फ़लस्वरूप हिन्दी भवन का निर्माण पूरा हुआ और हिन्दी प्रचार समिति की व्यवस्थापिका सभा ने सर्वानुमति से प्रस्ताव पास कर पं.रविशंकर शुक्ल हिन्दी भवन न्यास का गठन किया.वर्तमान में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के अध्यक्ष श्री सुखदेव प्रसाद दुबेजी, मंत्री-संचालक श्री कैलाशचन्द्र पन्तजी, महामहिम राज्यपाल, मान.मुख्यमंत्री म.प्र.शासन, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के प्रधानमंत्री सहित अन्य गणमान्य नागरिक इस न्यास के न्यासी हैं. “रामकाज किए बिना मोहे कहाँ विश्राम” की तर्ज पर चलने वाले मान.श्री कैलाशचन्द्र पन्तजी आखिर चुप कैसे बैठ सकते थे ?. नयी-नयी योजनाएं आपके मन के भीतर आकार लेती चलती हैं. उसी का सुपरिणाम है कि इस पावन भूमि पर एक भव्य और सुन्दर साहित्यकार-निवास ने आकार ग्रहण किया. इसी भवन में निर्मित तेरह कमरे, देश के मुर्धन्य साहित्यकार –श्री माखनलाल चतुर्वेदी, आचार्य श्री विनयमोहन शर्मा, श्री भवानी प्रसाद मिश्र, श्री रामेश्वर शुक्ल “अंचल”, डा.शिवमंगलसिंह सुमन, डा.चन्द्रप्रकाश वर्मा, श्री बालकृष्ण शर्मा “नवीन”, श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान, श्री जगन्नाथप्रसाद मिलिन्द श्री हरिकृष्ण प्रेमी तथा श्रीकृष्ण सरलजी की पावन स्मृतियों को समर्पित किया गया. इसके अलावा एक वातानुकूलित सेमिनार कक्ष और एक सामान्य संगोष्ठी कक्ष का भी निर्माण किया गया, जिनका उपयोग साहित्यिक आयोजनो के लिए किया जाता है. यहाँ एक पुस्तकालय भी संचालित किया जाता है, जिसमें अनेकानेक विषयों की करीब छब्बीस हजार पुस्तकें पाठकों के लिए उपलब्ध हैं. सन 1972 से इस पुस्तकालय का संचालन म.प्र.शासन के स्कूल शिक्षा विभाग एवं नगर निगम भोपाल के सहयोग से किया जा रहा है साहित्य की बेजोड द्वैमासिक पत्रिका “अक्षरा” का प्रकाशन विगत तीस वर्षॊं से हो रहा है.आज इसकी गणना देश की श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं में होती है. म.प्र.राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के मंत्री-संचालक श्री कैलाशचन्द्र पन्तजी इस पत्रिका के प्रधान सम्पादक और डा.सुनीता खत्रीजी सम्पादक हैं. अपनी श्रेष्ठ सम्पादकीय और पद्मश्री रमेशचन्द्र शाहजी के आलेख”शब्द निरन्तर”इस पत्रिका के प्राण होते हैं,जिन्हें पढकर आप चमत्कृत हुए बिना नहीं रह सकते.वक्ताओं के व्याख्यानों की आडियो-विडियो बनाकर उसे संरक्षित करना और “संवाद और हस्तक्षेप” का प्रकाशन कराना,कोई सरल काम नहीं है. इसी क्रम में “हिन्दी भवन संवाद” का मासिक अंक प्रकाशित होता है, जिसमें प्रदेश की साहित्यिक खबरें प्रमुखता से स्थान पाती हैं. हिन्दी भवन प्रदेश में संचालित समितियों के माध्यम से “प्रतिभा प्रोत्साहन प्रतियोगिताएँ” का आयोजन माह सितम्बर में करवाती है. इसमें कक्षा नौ से लेकर बारहवीं तक अध्ययनरत छात्र-छात्राएं भाग लेती है. देश भक्ति पर आधारित प्रसिद्ध कवियों की कविताओं का मुखाग्र पाठ, साहित्यिक अंत्याक्षरी, लोकगीत गायन प्रति.तथा वाद-विवाद प्रतियोगिताएं होती है और इसमें विजेताओं को स्मृति-चिन्ह, प्रमाणपत्र, तथा नगद राशि प्रदत्त किए जाते है. इन प्रतियोगिताओं के आयोजन के पीछे बच्चों को देशप्रेम के अलावा अपनी मातृभाषा हिन्दी के प्रति ललक जगाना होता है. शरद व्याख्यानमाला का शुभारंभ 2003 में हुआ था. इसका उद्देश्य ज्ञान आधारित तथा मौलिक लेखन को प्रोत्साहित करने के लिए किया गया . विख्यात कवि एवं कथाकार स्व.श्री नरेश मेहताजी की स्मृति में वांगमय पुरस्कार स्थापित किया गया. इसी वर्ष (2003), सम-सामयिक- सामाजिक विषयों पर विचार करने की परम्परा को स्थापित करने के लिए, सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायमूर्ति श्री रमेशचन्द्र लाहोटीजी के गरिमामय उपस्थिति में बसन्त व्याख्यानमाला की शुरुआत हुई. यात्रा सिर्फ़ यहीं आकर नहीं रूकती नहीं. निर्बाध गति से बहती यह यह पुण्यसलिला अपने प्रवाह में अनेकानेक कीर्तिमान स्थापित करती हुई, अनेकों पडावों को स्पर्श करती हुई, आगे बढती रही है. इन्ही अनूठे आयोजनों में प्रतिष्ठित पुरस्कारों की भी स्थापना की गई. श्री नरेश मेहता वांगमय सम्मान 31000/-रू., श्री शैलेश मटियानी स्मृति चित्रा-कुमार कथा पुरस्कार 11000,रू.,श्री वीरेन्द्र तिवारी स्मृति रचनात्मक पुरस्कार 21000/-,रू. श्री सुरेश शुक्ल “चन्द्र” नाट्य पुरस्कार 11000/-रू.,श्रीमती हुक्मदेवी स्मृति प्रकाश पुरस्कार 5000/-,रू, इन पुरस्कारों के अलावा अन्य चौदह पुरस्कार दिए जाने की यहाँ व्यवस्था है. जिनमें हिन्दीतर भाषी हिन्दी सेवियों(सभी भारतीय भाषाओं के) को प्रदेश के महामहीम राज्यपाल द्वारा प्रदत्त किए जाते हैं.

विश्व-हिंदी : मूर्खतापूर्ण बातें:डॉ वेदप्रताप वैदिक

$
0
0

viswa hindi sammelanनया इंडिया, 14 सितंबर 2015

विश्व-हिंदी : मूर्खतापूर्ण बातें

डॉ वेदप्रताप वैदिक

भोपाल में हुए 10 वें विश्व हिंदी सम्मेलन से बहुत आशाएं थीं| विदेशों में होनेवाले विश्व हिंदी सम्मेलनों से इतनी आशा कभी नहीं रहती थी, क्योंकि सबको पता रहता है कि वे तो सैर-सपाटा सम्मेलन ही होते हैं| हिंदीवालों को विदेशों में कौन पूछता है? वे हिंदी के नाम पर मुफ्त में सैर-सपाटा कर आते हैं| लेकिन इस बार लगभग तीस साल बाद यह सम्मेलन भारत में हुआ| भारत में होने के बावजूद इसे विदेश मंत्रालय ने क्यों आयोजित किया? विदेश मंत्रालय का हिंदी से क्या लेना-देना? विदेश मंत्रालय तो अंग्रेजी की गुलामी का सबसे बड़ा गढ़ है| हमारी विदेश नीति कई बार सिर्फ अंग्रेजी के कारण ही गच्चा खा जाती है| यदि सचमुच सुषमा स्वराज ने इसे आयोजित किया होता तो शायद वह इसे काफी बेहतर तरीके से आयोजित करतीं| वे तो स्वयं हिंदी की प्रबल समर्थक रही हैं| मुझे अब से 40-45 साल पहले वे ही हिंदी कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि बनाकर ले जाया करती थीं लेकिन इस बार विदेश मंत्री होने के बावजूद मुझे लगता है कि सम्मेलन की लगाम नौकरशाहों के हाथ में चली गई| जिस सरकार को ही नौकरशाह चला रहे हैं, उसके किसी छोटे-मोटे सम्मेलन को भला वे क्यों नहीं चलाएंगे? यदि नौकरशाहों ने मुझे, नामवरसिंहजी और अशोक वाजपेयी जैसों को नहीं बुलाया तो इसमें बेचारी सुषमा क्या करे? मुझे खुशी है कि हमारे नौकरशाहों के नौकरों ने मुझे भी साहित्यकारों की श्रेणी में रख दिया है।

लेकिन सुषमा और नरेंद्र मोदी के मुंह से नौकरशाहों ने ऐसी बात कहलवा दी, जो कोई महामूर्ख ही कह सकता है| दोनों ने कह दिया कि साहित्यकारों का हिंदी से क्या लेना-देना? हमने तो सिर्फ हिंदी-सेवियों को बुलाया है| किसी भी भाषा का परम उत्कर्ष उसके साहित्य में ही होता है| साहित्य से विरत होकर कौनसी भाषा महान बनी है? इस तथ्य के विरुद्ध साहित्य और भाषा के बारे में इतनी मूर्खतापूर्ण बात कहनेवाले नेताओं को कान पकड़कर मंच से नीचे उतार दिया जाना चाहिए था लेकिन बेचारे हिंदीसेवीया नेतासेवियोंमें इतनी हिम्मत कहां?

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर इस सम्मेलन से आशा थी कि अबकी बार सचमुच यह कुछ ठोस काम करेगा लेकिन मोदी की मजबूरी है| वह हर गंभीरतम काम को भी नौटंकी में बदल देते हैं| एक बेसिरपैर का भाषण जमाकर वह चलते बने| कोई प्रेरणा नहीं, कोई संदेश नहीं, कोई नई जानकारी नहीं, कोई विश्लेषण नहीं| सिर्फ एक फूहड़ भविष्यवाणी| दुनिया में सिर्फ अंग्रेजी, चीनी और हिंदी ही बचेंगी, शेष सब भाषाएं खत्म होंगी| किसने यह पट्टी पढ़ा दी, नेताजी को? मुख्य मेजबान मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने कोई उटपटांग बात नहीं कही, यह बड़े संतोष का विषय है|

इस सम्मेलन ने भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जड़ें खोदकर रख दी हैं| इस तीन दिन के सम्मेलन ने भाजपा और संघ जैसे राष्ट्रवादी संगठनों के इतने दुश्मन खड़े कर दिए हैं, जितने मोदी ने सवा साल में पैदा नहीं किए| साहित्यकारों और पत्रकारों का जैसा अपमान इस सरकार ने किया है, उसके नतीजे वह अब भुगतेगी|


Ved Pratap Vaidik

 

नहीं रहे उत्कट जीवट के धनी बालशौरि रेड्डी

$
0
0

B-S-Reddy

नहीं रहे उत्कट जीवट के धनी बालशौरि रेड्डी

(हिंदी-तेलुगु का एक सुदृढ़ सेतु गिर गया)

यह अत्यंत दुखद समाचार है कि तेलुगु और हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार, ‘चंदामामा’ के पूर्व संपादक और बालसाहित्यकार, उत्कट जीवट के धनी बालशौरि रेड्डी हमारे बीच नहीं रहे. 15 सितंबर, 2015 को सुबह लगभग 10 बजे के आस-पास फोन की घंटी बजी और उठाते ही यह दुखद समाचार सुनने को मिला. अपने कानों पर यकीन नहीं कर पाई क्योंकि 8 सितंबर को उनसे फोन पर बात हुई थी तो कह रहे थे – बेटी भोपाल जा रहा हूँ विश्व हिंदी सम्मलेन में भाग लेने. आने के बाद बात करेंगे. वे मुझे बेटी कहकर संबोधित करते थे

चूंकि रेड्डी जी और मेरे पिताजी अच्छे दोस्त थे. बचपन में तो मैं उनकी गोद में खेली थी. उनकी जिजीविषा इतनी सक्षम थी कि वे दो बार मौत से जीत चुके थे. संकोच करते हुए रेड्डी जी के घर फोन किया. उधर से भैया (उनके सुपुत्र) ने फोन उठाया और जब मैंने उनसे यह कहा कि ‘भैया यह मैं क्या सुन रही हूँ?’ तो उन्होंने कहा – ‘ठीक ही सुना है. सुबह 8.30 बजे चाय पी रहे थे और हम सबसे बात करते करते अचानक ही लुढ़क गए.’ बस इतना ही कह पाए. उनकी सिसकियाँ सुनाई दे रही थी.

बालशौरि रेड्डी का जन्म आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिला में स्थित मोल्लल गूडूर में 1 जुलाई, 1928 को हुआ था. उनकी मातृभाषा तेलुगु थी. अपनी मातृभाषा के साथ साथ हिंदी के लिए भी वे समर्पित थे. वे हमेशा यही कहा करे थे कि मेरी दो-दो मातृभाषाएँ हैं – तेलुगु और हिंदी. तेलुगु के साथ साथ हिंदी में भी उन्होंने अनेक मौलिक रचनाओं का सृजन किया. बालसाहित्य के साथ साथ उपन्यास, कहानी, नाटक निबंध, समीक्षा, आलोचना आदि विधाओं के माध्यम से उन्होंने दक्षिण भारत की संस्कृति को हिंदी पाठकों तक पहुँचाने का काम किया. मौलिक लेखन के साथ साथ अनुवादों के माध्यम से भी उन्होंने दक्षिण और उत्तर के भेद को मिटाने का प्रयास किया.

पाश्चात्य देशों की तुलना में भारत में आज भी बालसाहित्य की कमी है. इस क्षेत्र में बालशौरि रेड्डी का प्रयास सराहनीय है. ‘चंदामामा’ पत्रिका के माध्यम से उन्होंने बालसाहित्य लेखन को आगे बढ़ाया. उनकी मान्यता थी कि देश का भविष्य बच्चों के बौद्धिक एवं मानसिक विकास पर ही निर्भर होता है. इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए उन्होंने हिंदी के बालपाठकों के लिए ‘तेलुगु की लोक कथाएँ’, ‘आंध्र के महापुरुष’, ‘तेनाली राम के लतीफे’, ‘तेनाली राम के नए लतीफे’, ‘बुद्धू से बुद्धिमान’, ‘न्याय की कहानियाँ’, ‘तेनाली राम की हास्य कथाएँ’, आदर्श जीवनियाँ’, ‘आमुक्तमाल्यदा’ जैसी बालोपयोगी रचनाएँ कलात्मक रूप से प्रस्तुत की. बालसाहित्य के संबंध एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि “बच्चों के लिए लिखा गया साहित्य मनोरंजक हो. उनका हित करने वाला हो. साहित्य का कार्य है मानव मात्र को योग्य नागरिक एवं उत्कृष्ट सामाजिक बनाना, जीवन यात्रा में सही दिशा में बोध कराना. साहित्य मनोरंजन भी करे, साथ ही परोक्ष रूप से उसमें सामाजिक और नैतिक मूल्यों से युक्त मानदंड स्थापित करने की क्षमता भी हो.” उल्लेखनीय है कि उनकी पहली रचना बालसाहित्य की ही रचना थी.

हिंदी प्रचार-प्रसार में बालशौरि रेड्डी का योगदान उल्लेखनीय है. यदि उन्हें राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत व्यक्ति कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. नेताओं की कथनी और करनी में अंतर देखकर वे चिंतित हो जाते थे. इसीलिए वे कहा करते थे – “हमारे राष्ट्रीय नेता तथा शासन तंत्र से जुड़े हुए लोग मंच पर अथवा हिंदी दिवस, सप्ताह या पखवाड़े के समारोहों में उत्तेजित स्वर में हिंदी के प्रति जोश प्रकट करते हैं तथा प्राचीन सांस्कृतिक वैभव का गुणगान करते थकते नहीं. किंतु व्यावहारिक रूप में कार्यान्वयन का जब प्रश्न उठता है, तब नाना प्रकार की समस्याओं की दुहाई देकर अपने को अधिक उदार होने की, प्रशस्ति पाने का नाटकीय अभिनय करते हैं. हमारे यहाँ कथनी और करनी में जमीन-आसमान का अंतर दर्शित होता है.” जो लोग यह मानते हैं कि हिंदी के विकास में क्षेत्रीय भाषाएँ बाधक बनती हैं उनकी धारणा को खंडित करते हुए वे कहा करते थे कि “मातृभाषा कभी भी राष्ट्रभाषा के मार्ग में बाधक नहीं बन सकती. सभी क्षेत्रीय भाषाएँ पुष्प हैं जो राष्ट्र रूपी हार की शोभा बढ़ाते हैं. हिंदी के विकास के पड़ाव में अंतर्धारा के रूप में मातृभाषा कार्य कर सकती है.”

बालशौरि रेड्डी क्रियाशील व्यक्ति थे. वे यह मानते थे कि आराम हराम है. महात्मा गांधी के व्यक्तित्व और उनके विचारों से वे प्रभावित हुए तथा अपने जीवनकाल में उनके विचारों का पालन करते रहे. उनसे जब भी मुलाकात होते थी तो वे कहा करते थे – मुझे तो 100 साल तक जीने की उम्मीद है. उनकी जिजीविषा को देखकर हम सब आश्चर्य व्यक्त करते थे. हिंदी-तेलुगु का एक सुदृढ़ सेतु गिर गया. आज 13 साल पहले ही उनके सौ साल पूरे हो गए. ऐसे महान व्यक्तिव को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि.

  • डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद
  • सह-संपादक ‘स्रवन्ति’

हिन्दी को लेकर न तो शोक सभा की जरूरत है , न कोप भवन में जाकर बैठने कीःडॉ. वर्तिका नन्दा

$
0
0

hindiहिंदी सांस में है, पानी में, पहाड़ में, खेत में, सेल्फी में, शहर में, देहात में। इसलिए जाहिर है कि हिंदी की धमक मीडिया में भी है।

90 के दशक में जब निजी मीडिया भारत में दस्तक दे रहा था, मुझे देश के पहले निजी चैनलज़ी टीवी का हिस्सा बनने का मौका मिला। दिल्ली के साउथ एकस्टेंशन के जे ब्लॉक की एक गली के 27 नंबर रिहायशी मकान में जी टीवी का दफ्तर तब यह नहीं जानता था कि यहां एक ऐसा इतिहास रचा जा रहा है जिसे दुनिया हमेशा याद रखेगी। इस मकान में देश के पहले हिंग्लिश न्यूज बुलेटिन के प्रसारण ने हिंदी के समाज को खुशी और नाखुशी दोनों ही दी। हिंदी के कई पुरजोर समर्थकों को लगा कि हिंदी और अंग्रेजी की मिलावट का यह प्रसारण भाषा की गरिमा को ही चौपट कर डालेगा जबकि दूसरे हिस्से का कहना था कि इससे हिंदी का फैलाव बढ़ेगा।

समय ने एक करवट ली। बुलेटिनों की भाषा तय हो गई। हिंगलिश का झमेला खत्म हुआ। 1996 में जब मैं एनडीटीवी का हिस्सा बनी, तब वह खबरों की भाषा की उधेड़बुन के बीच मीडिया और जनता के बीच पुल बनने के रास्ते खोज रहा था। तय हुआ कि एक ही चैनल पर हिंदी और अंग्रेजी के अलग-अलग बुलेटिन दिए जाएं। यह परंपरा दूरदर्शन की स्थापित परंपरा से अलग थी क्योंकि यहां कलेवर अलग था और मकसद भी। यह बदलाव जनसेवा माध्यम की तरह जनता के लिए ही नहीं था, यह बाजार के लिए था और बाजार से चाहिए था पैसा ।

लेकिन इस आर्थिक जरूरत के बावजूद निजी चैनलों की हिंदी ने कहानी को नए सिरे से लिख ही दिया। आज उन पन्नों को एक साथ समेट कर पढ़ने पर लगता है कि हिंदी को लेकर न तो शोक सभा करने की जरूरत है और न ही उसके भविष्य को लेकर कोप भवन में जा बैठने की।

हिंदी अपने उछाल पर है। अगर मीडिया मे हिंदी की स्थिति डगमगा रही है तो यही बात काफी हद तक अंग्रेजी और बाकी भारतीय भाषाओं के लिए भी कही जा सकती है। इसलिए एतिहात की जरूरत वहां भी है। हिंदी के साथ सौभाग्य इस बात का भी है कि इतरा कर चलने के बावजूद हिंदी खुद को संवारने और निखारने के प्रयास में लगातार लगी रहती है। वह न्यूज रूम में उस नोंक-झोंक का हिस्सा हमेशा रही जहां बहस यह थी कि शब्द लाइब्रेरी हो या वाचनालय। खाना हो या व्यंजन। पानी हो या जल। शब्दकोष की हिंदी और आम जनता की हिंदी के बीच मीडिया की हिंदी ने जनता की नब्ज को टटोलते हुए अपनी जगह बनाने की हिम्मत और साफगोई दिखाई है। इस कोशिश में बेशक उसने कई ऐसे कारनामे और कारगुजारियां कर दिखाईं कि उन पर कभी हंसी आई तो कभी बेहद अफसोस हुआ। पर जरा मीडिया में हिंदी की यात्रा पर भी तो गौर फरमाइए।

जब निजी चैनलों पर खबर के प्लेटफॉर्म पर हिंदी उतरी तो अंग्रेजी वालों ने उसे देवनागरी की बजाय रोमन में लिखना ही मुनासिब समझा। जाहिर है कि आसानी चुनने के इस फेर में हिंदी की अनाड़ी फुटबॉल खेली जाने लगी। भाषा की स्लेट हिलने लगी और टेलीप्रांप्टर से जो शब्द पढ़े जाने लगे, वे अक्सर गलतियों से भरपूर रहे। हिंदी को लिखने और पढ़ने वालों में बड़ी तादाद उन्हीं की थी जो हिंदी वाले नहीं थे। अंग्रेजी के मीडिया मालिक इस मुगालते के साथ आगे बढ़ रहे थे कि हिंदी वही सजेगी जिसे अंग्रेजी वाले सजाएंगे। माना यह भी गया कि हिंदी वाले खालिस और क्लिष्ठ हिंदी लिखेंगे। उनकी लिखी भाषा बाजार में बिक ही नहीं सकती। इसलिए अंग्रेजीदां स्कूलों में पढ़े युवकों से ही घिसटती-भटकती हिंदी बुलवा कर काम चलाया जाए। दर्शक अंग्रेजी वालों को हिंदी बोलता देख खुश ही होगा (मजे की बात यह कि ऐसी छूट हिंदी वालों को भी दी जाए, इसकी तब कल्पना तक नहीं की गई)।

कहानी बाजार की थी। करो वही जो बाजार को भाए। लेकिन बाजार भी खालिस की ही मांग करता रहा। कुछ दिनों तक तो प्राइवेट मीडिया की बचकानी और कई बार बेहद गंभीर गलतियों को जनता और विश्लेषक यह कह कर माफ करते रहे कि नए बच्चे से गलतियां हो ही जाती हैं। बाद में बच्चा बड़ा हुआ तो गलतियों को इस तरह नजर अंदाज करना आसान भी न रहा।

अब फिर एक नई करवट की बारी आई। हिंदी वाले हिंदी देखें। अंग्रेजी वाले अंग्रेजी। चैनलों का विभाजन सीधे तौर पर होने लगा। इधर बाजार ने भी हिंदी की पताका फहरा दी। कथित टीआरपी हफ्ते दर हफ्ते यह ऐलान करने लगी कि हिंदी के चैनल सबसे ज्यादा देखे जाते हैं। हिंदी के मुहावरे, उसकी लचक, उसकी मस्ती पसंद की जाती है। हिंदी का रिपोर्ट कार्ड हफ्तों और महीनों में टॉप पर रहा। अब हिंदी चैनलों ने अंग्रेजी से लिए उधार के एंकरों की बजाय अपने प्रोडक्ट खुद तय करने शुरू कर दिए।

हर हिंदी चैनल ने अपने ब्रांड एंबेसेडर बना लिए और उनके नाम पर तिजोरियां भरनी भी शुरू कर दीं। हिंदी अखबारों और हिंदी में पत्रकारिता पढ़ाने वाले संस्थानों में ऐसे लोगों के लिए हांक लगाई जाने लगी जो हिंदी बेल्ट के अनुसार खबर तैयार करें। इस दौर में हिंदी की अशुद्धियों को भी खूब नजरअंदाज किया गया। कई ऐसे पत्रकार टीवी के लिए चुन लिए गए जिनका श और स हमेशा गलत डिब्बे में ही जाकर गिरता रहा। चूंकि मालिकों को हिंदी ज्यादा समझ में नहीं आती थी, कई फैसले हड़बड़ी में लिए गए। नतीजतन अब भी टीवी चैनलों पर कई ऐसे पुराने पत्रकार मौजूद हैं जिनकी वर्तनी आज भी सुधर नहीं सकी है और भविष्य में उसके सुधरने के कोई आसार भी नहीं हैं। इसलिए हिंदी का जो कथित अशुद्ध चेहरा टीवी पर दिखता है, उसके लिए मौजूदा पीढ़ी को ही जिम्मेदार ठहराना उन्हें ठगने जैसा ही होगा।

लेकिन अभी एक बदलाव और भी बाकी था। नए दौर ने पाया कि अंग्रेजी की दुकान अब हिंदी की तरफ आना चाह रही है। हवा उलटी दिशा में बहने लगी। अगर हिंदी के पत्रकार अंग्रेजी में ओबी करने की कोशिश में लगे थे तो अंग्रेजी के पत्रकार भी इससे पीछे नहीं रहे। अब उनके लिए हिंदी एक जरूरत बन गई। इसकी एक बड़ी मिसाल 2004 में देखी जब एनडीटीवी के मालिक प्रणव रॉय ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जमाली का हिंदी में इंटरव्यू किया। एक और मौके पर वे राजनीति के हास्य कलाकार लालू यादव से भी हिंदी में बोलते देखे गए। उधर प्रभु चावला, एम.जे.अकबर और वीर सांघवी भी हिंदी में बोलने लगे।

लेकिन हिंदी का असर सिर्फ न्यूज रूम की स्टाइल बुक और खबर की दुनिया को संचालित करने वाले मालिकों और खबरों को जमा कर लाने वाले पत्रकारों पर ही नहीं पड़ा। हिंदी ने राजनीतिक गलियारे में जमकर धमाचौकड़ी मचाई। हिंदी न बोल पाने वाली सोनिया गांधी हिंदी में लंबे भाषण देने लगीं। जयललिता ने भी हिंदी में अपना हाथ आजमा लिया। राजनीतिक अखाड़ों में हिंदी की पाठशाला खुलने लगी। हिंदी का ककहरा सीखना राजनीति के टेस्ट में पास होने की पहली शर्त बनने लगा। नतीजतन बड़े नेता टीवी चैनलों को अंग्रेजी में बाइट देने के बाद खुद ही हिंदी में भी बाइट देने का आमंत्रण देने लगे। एनडीटीवी ने कुछ साल पहले जब राजनीतिक हंसी के तौर पर – ‘गुस्ताखी माफनाम के एक कार्यक्रम की शुरुआत की तो एक बड़े नेता ने इस बात पर कड़ा ऐतराज जताया कि उन पर कार्टून क्यों नहीं बनाए जा रहे। हिंदी चैनल में दिखना नेताओं के लिए च्यवनप्राश का काम करने लगा। वे जान गए कि संसद से सड़क तक पहुंचना होगा तो हिंदी का हाथ थामना ही होगा। हिंदी न आना या उसे बोल पाने में अक्षमता जाहिर करना फैशन की बात नहीं है। फैशन में रहना हो तो भी हिंदी चाहिए और वोट बटोरने हों तो भी।

हाल यहां तक पहुंचा कि 2014 के चुनाव सोशल मीडिया के मैदान पर लड़े गए। वादों-विवादों-अपवादों की कहानी की बड़ा हिस्सा भी हिंदी में ही कहा गया। आज भी हिंदी के सभी प्रमुख न्यूज चैनल नेताओं पर राजनीतिक कार्टून और टिप्पणियां हिंदी में देकर खूब तालियां बटोर रहे हैं।

हिंदी असल में ऊर्जा की भाषा है। हिंदी गति है, वीर गति नहीं। बहस का केंद्र यह रखने की जरूरत नहीं है कि मीडिया ने हिंदी को क्या दिया। यहां कोई बहस है ही नहीं। बात यहां यह सोच कर मुस्कुराने की है कि हिंदी ने मीडिया को क्या दिया। खबरों के केंद्र से लेकर न्यूज एंटरटेंमेंट चैनल, रेडियो, प्रिंट, फिल्म, नाटक से लेकर हर विधा में हिंदी ने अपने को कायम कर लिया है। अब विश्व हिंदी सम्मेलनों में हिंदी की चिंता से ज्यादा जोर इस पर हो कि हिंदी वाले कुछ और सकारात्मक कैसे हों। छोटे गुट टूटें और हिंदी बने पूरी तरह से ग्लोकल। तिनके तिनके जोड़ कर हिंदी अब हिमालय हो चुकी है। इसलिए हिंदी के चेहरे पर इस समय उत्सव की-सी जो चमक और दमक है, उसे लेकर मुंह मीठा करना तो बनता ही है क्योंकि हिंदी हैतो मीडिया है। हिंदी हैतो हम हैं।

(लेखिका गांव की सेल्फीनाम की पत्रिका की संपादक और दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्री राम कॉलेज में पत्रकारिता विभाग की अध्यक्ष हैं)

साहित्य अकादमी कितनी स्वायत्त, कितनी सरकारी

$
0
0


42-20522473साहित्य जगत के, मेरे कुछ वरिष्ठ जन यह भूल रहे हैं कि आज से 61 वर्ष पूर्व जिस साहित्य अकादमी की स्थापना ही केन्द्रीय सरकार द्वारा की गई और इतना ही नहीं, उसका सारा विधान आदि भी शिक्षा मंत्रालय द्वारा बनाया गया, वह अकादमी ‘स्वायत्त’ होते हुए भी ‘ उतनी’ स्वायत्त कैसे हो सकती है , जितना कि वे उसे समझ रहे हैं ? वह कहने भर के लिए ‘स्वायत्त’ है, बाकी तो उसकी सभी गतिविधियों में सरकार का खासा दखल है ! और होगा भी ! क्योंकि इसकी संरचना के पीछे सरकार की महत्वपूर्ण भूमिका रही है ! इसे ‘स्वायत्त’ मानने वाले साहित्यकार ज़रा इसकी पृष्ठभूमि पर गौर करे तो पायेगे कि यह सरापा सरकार की परिकल्पना, सरकार के प्रयासों से ही अस्तित्व में आई तो, सरकार से पृथक कैसे होगी ? . .

‘साहित्य अकादमी’ बनाने के लिए सबसे पहले, 1952 में सरकार द्वारा प्रस्ताव पारित किया गया ! तदनंतर अपेक्षित औपचारिकताओं को पूर्ण करते हुए मार्च 1954 में केन्द्रीय सरकार के तत्कालीन शिक्षा मंत्री ‘मौलाना आज़ाद’ ने इसकी स्थापना की ! ‘शिक्षा मंत्रालय’ द्वारा ही इसका विधान बनाया गया ! इस सबके बाद, 1956 मे, ‘भारतीय सोसायटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860’ के तहत सोसायटी के रूप में इसका रजिस्ट्रेशन किया गया ! यानी के ‘स्वायत्तता’ प्रदान करने वाली भी ‘सरकार ‘ ही थी ! ‘साहित्य अकादमी’ के संचालन और प्रबंधन में प्रमुख भूमिका निबाहने वाली ‘जनरल काउंसिल’ में अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के अतिरिक्त पाँच सदस्य ‘भारत सरकार’ द्वारा नामित होते हैं, जिनमे से एक मानव संसाधन विकास मंत्रालय के ‘संस्कृति विभाग’ से और एक ‘सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय’ से होता है ! कार्यकारिणी समिति में सरकार द्वारा मनोनीत दो अधिकारी और वित्त समिति में वित्तीय मामलों का सलाहकार भी सरकार द्वारा मनोनीत होते है ! साहित्य अकादमी के आय-व्यय का लेखांकन भी भारत के नियन्त्रक एवं महालेखापरीक्षक (Comptroller and Auditor General of India / CAG) प्राधिकारी द्वारा किया जाता है, जिसकी स्थापना भारतीय संविधान के ‘अध्याय 148 ‘ के तहत भारत सरकार तथा सभी प्रादेशिक सरकारों व ‘ सरकार के स्वामित्व वाली’ संस्थाओं के आय-व्यय का लेखांकन के लिए की गई थी ! तो अकादमी ‘स्वायत’ रूप में रजिस्टर्ड भले ही हो, पर इस साहित्यिक संस्था में कदम-कदम पर सरकारी अधिकारी नियुक्त है, अतेव सरकार का पूरा दखल होना लाजमी है ! हमारे कुछ वरिष्ठ लेखक इस बात से कैसे अंजान हैं या वे यह बात कैसे भूल रहे हैं कि इसका जन्म ही सरकार के हाथों हुआ था और उसी ने 61 वर्ष से इसे पोषित किया, संवर्द्धित किया, !  . इसलिए मृदुला गर्ग जी का यह कहना – ” अगर हम अपना विरोध साहित्य अकादमी पुरस्कारों को लौटने या वहाँ के पदों को छोड़ने से व्यक्त करते हैं, तो हम कहीं ऐसा तो नहीं कह रहे कि साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्था न होकर सरकार की ही एक शाखा है “और अन्य लोग, जो भी इस भ्रम में हैं कि कहीं साहित्य अकादमी की स्वायत्तता को तो वे ठेस नहीं पहुंचा रहे, वे निश्चिन्त रहें ! उन लोगो की जानकारी के लिए, मेरे द्वारा ब्यौरेवार ऊपर प्रस्तुत सारी बाते साफ-साफ तय करती हैं कि साहित्य अकादमी औपचारिक और अनौपचारिक – दोनों तरह से सरकारी ही है ! दूसरे शब्दों में इसके साथ जुड़े ‘स्वायत्तता’ शब्द का मान रखते हुए, इसे अर्द्ध- सरकारी भी कहा जा सकता है ! इसकी नींव, फिर उस नींव पर इसका ढांचा – सब कुछ सरकार द्वारा ही निर्मित है ! सो बेफिक्र रहें – सरकार इसकी स्वायत्तता को ठेस नहीं पहुँचने देगी !

, .  ये तो हुई अकादमी की संरचना में सरकारी प्रभाव की बात ! अब हम इसके मानवता के पक्ष की बात करते हैं ! मानवता के नाते कोई भी साहित्यिक संस्था सरकारी हो या गैर सरकारी, उसका कर्तव्य बनता है कि किसी भी साहित्यकार की सहज मौत हो या असहज, उस पर शोक सभा करनी चाहिए ! दुःख प्रगट करना चाहिए ! वैसे भी यह सामाजिक और नैतिक कर्तव्य है ! इसके अलावा, अकादमी को ‘साहित्य का सरमाया’ होने के नाते साहित्य के सृजनकर्ताओं के हित में, उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में, उनके सम्मान के पक्ष में, उनके जीवन की सुरक्षा के पक्ष में कदम उठाने चाहिए ! साहित्य अकादमी को याद रखना चाहिए कि भाषानीति और साहित्य के जिस उद्देश्य को लेकर यह संस्था 1954 में केन्द्रीय सरकार द्वारा बनाई गई थी, उसका पहला महत्वपूर्ण कदम था : . १) संविधान मे उल्लिखित विभिन्न प्रान्तों की भारतीय भाषाओं के साहित्य का विकास करना, जो वास्तव में अलग-अलग राज्यों का कर्तव्य था ! .  २) दूसरा महत्वूर्ण कदम था कि ‘ उस समय’ संविधान ने जिन १४ प्रादेशिक भाषाओं को स्वीकृति प्रदान की थी, उस सूची में वृद्धि करना !  . अब हिन्दी सहित अन्य भाषाओँ के साहित्य के सृजनकर्ताओं के प्रति यदि ‘साहित्य अकादमी’ और साथ ही सरकार का, इतना रूखा और उदासीन रवैया होगा कि उनकी मृत्यु पर शोक सभा करने की भी सुध न ले, तो यह घोर आपत्तिजनक बात है ! निंदा और भर्त्सना के योग्य है ! राजधानी में स्थापित ‘साहित्य अकादमी’ – अन्य प्रांतीय अकादमियों के ऊपर है, उन सबकी मार्गदर्शिका है, अगर वह ही ‘भारतीय संस्कृति के मूल्यों’ को भूलेगी कि किसी की मृत्यु पर दुःख प्रगट करना हमारा पहला फ़र्ज़ है तो, फिर अन्य प्रांतीय अकादमियों पर किसी को उंगली उठाने का कोई हक नहीं !  . . इसमें कोई दो राय नहीं , न ही कोई दुविधा कि उपर्युक्त तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में ‘साहित्य अकादमी’ मे ‘सरकार’ का प्रबल प्रभाव देखते हुए , लेखकों द्वारा सम्मान लौटाया जाना , निश्चित ही ‘ सरकार का विरोध’ करना है ! किन्तु वरिष्ठ साथियों का सम्मान लौटाना मुझे उचित प्रतीत नहीं होता ! क्यों ? क्योंकि अकादमी सम्मान उन्हें, उनकी रचनात्मक गुणवत्ता और प्रतिभा के लिए मिला था ! उसे लौटने से ‘विरोध और विद्रोह’ उतना प्रभावी और प्रबल नहीं हो सकता जितना कि इस ज़रूरत के मौके पर, धारदार लेखनी चलाने से ! कहा गया है कि इतनी ताकत तो तोप, तलवार और बम के गोलों में भी नहीं होती, जितनी की लेखक की कलम में ! सो सम्मान लौटाने वाले हमारे लेखक यदि अपनी दमदार कलम चलाएं तो, विद्रोह व आक्रोश के स्वर सरकार तो सरकार, कायनात को भी कम्पित कर देंगे ! मुझ अल्पमति की ओर से मेरा अपने वरिष्ठ जनो से यह मात्र एक अनुरोध हैं, आगे जैसा वे उचित समझे !  .  . मेरा दिल्ली साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जी से विनम्र निवेदन है कि अब तक नहीं तो, अब सही… ! विश्वनाथ तिवारी जी अमानवीय मौत मरे, हमारे सम्मानीय साहत्यिकारों को मानवता के नाते श्रद्धांजलि देने हेतु शोक सभा करके अकादमी की गरिमा और महिमा को बनाये रखे ! हम सब उनसे कुछ अधिक की तो अपेक्षा नहीं कर रहे शायद ? वे कृपया आगे बढ़े और इस प्रतीक्षित कार्य को अविलम्ब करके हम साहित्यकारों को ही नहीं, बल्कि अमानवीय मौत से विचलित एवं दुखी सभी देशवासियों के तपते मन को शांत करे और सरकार देश में धतं व जाति के नाम पर बेख़ौफ़ बढ़ती हिंसा को खत्म करने लिए कारगर कदम उठाये !

 

डा. दीप्ति गुप्ता  पूना (महाराष्ट्र)

 

 

Mobile : 9890633582

 

 


वैश्विक हिन्दी सम्मेलन की दस्तक बरमिंघम में

$
0
0

me1‘११ अक्तूबर २०१५

‘इंग्लॅण्ड’ में ‘बर्मिंघम’ शहर के ‘गीता भवन’ में श्रीमती शैल अग्रवाल जी की इ पत्रिका ‘लेखनी’  का ‘लेखनी सानिध्य ‘ का वार्षिक कार्यक्रम आयोजित किया गया जहाँ  ब्रिटेन के गणमान्य साहित्य-प्रेमी उपस्थित थे. तीन घंटे तक चले इस कार्यक्रम में काव्य-गोष्ठी का आयोजन  किया गया जिसमे ब्रिटेन तथा भारत के अनेक प्रसिद्ध साहित्य-प्रेमी कवियों ने अपनी सुन्दर रचनाओं का पाठ  किया. इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि ‘भारत के कांउसलेट जनरल’ श्री जे के शर्मा जी थे. लंदन से ‘कथा यू.के.’ के महासचिव एवं ब्रिटेन की साहित्यिक हिन्दी पत्रिका ‘पुरवाई’  के संपादक श्री तेजेन्द्र शर्मा, लन्दन की वरिष्ठ कथाकार श्रीमती  उषाराजे सक्सेना तथा कोलिंडेल वार्ड (लन्दन बरो ऑफ़  बार्नेट) की कॉउंसलर  श्रीमती ज़किया ज़ुबेरी जी भी यहाँ उपस्थित थीं. मिडलैंड में महारानी की रिप्रेजेन्टेटिव और ओ बी ई श्रीमती सतिंदर टौंग अपने पतिदेव के साथ जो दोनों ही डेप्युटी लेफ्टिनेंट जनरल हैं, बरमिंघम के गीतांजलि ग्रूप के संस्थापक कृष्णकुमार और उनकी पत्नी चित्रा कुमार, नौटिंघम से काव्यरंग संस्था की संस्थापिका जया वर्मा, लंदन से आई शिखा वाष्णेय, बरमिंघम के कृष्ण कन्हैया, अजय त्रिपाठी, आनंद सिन्हा, नरेन्द्र ग्रोवर, हल से आए डॉ. राम आसरे सिंह व खुद शैल अग्रवाल जी ने अपनी कविताओं का सरस पाठ किया। रेडिओ एक्सेल के आनंद जी व कई अन्य बरमिंघम के विशिष्ट नागरिकों से भरे हाल में ‘वैश्विक हिंदी सम्मलेन’ की ओर  से श्रीमती शील निगम ने इस साहित्यिक सभा में  ‘वैश्विक हिंदी सम्मलेन’ संस्था का संछिप्त परिचय दिया. ‘वैश्विक हिंदी सम्मलेन’ की ओर से वरिष्ठ साहित्यकार एवं ‘लेखनी’ की संपादक  श्रीमती शैल अग्रवाल जी को हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रति महत्वपूर्ण योगदान, हिन्दी  साहित्य के प्रसार कार्य तथा राष्ट्र भाषा हिंदी के प्रति उनकी निष्ठा के लिए  ‘वैश्विक हिंदी साहित्य-सारथि सम्मान’ से विभूषित करने के निर्णय की घोषणा की गयी. यह सम्मान शीघ्र ही उन्हें प्रदान किया जाएगा.’

-शील निगम

 

ऋषभदेव शर्मा की पुस्तकों का लोकार्पण संपन्न

$
0
0

RDS

हैदराबाद, 14 अक्टूबर, 2015

साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था ‘साहित्य मंथन’ के तत्वावधान में खैरताबाद स्थित दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के सम्मलेन कक्ष में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से पधारे प्रो. देवराज की अध्यक्षता में आयोजित एक समारोह में तीन पुस्तकों को लोकार्पित किया गया. तेवरी काव्यांदोलन के प्रवर्तक प्रो. ऋषभदेव शर्मा की समीक्षात्मक कृति ‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ का लोकार्पण ‘भास्वर भारत’ के प्रधान संपादक डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने किया. प्रो. ऋषभदेव शर्मा और डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा द्वारा संपादित पुस्तक ‘उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया’ का लोकार्पण महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से पधारे प्रो. देवराज ने किया. एटा, उत्तर प्रदेश के युवा समीक्षक डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह कृत ‘ऋषभदेव शर्मा का कविकर्म’ का लोकार्पण ‘पुष्पक’ की प्रधान संपादक तथा कादंबिनी क्लब और आथर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, हैदराबाद की संयोजक डॉ. अहिल्या मिश्र ने किया.

अध्यक्षीय भाषण में प्रो. देवराज ने लोकार्पित पुस्तकों की प्रासंगिकता के बारे में कहा कि ‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ और ‘उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया’ जैसी पुस्तकों के सृजन और संपादन की पृष्ठभूमि में इतिहासबोध के साथ समसामयिक प्रश्नों की गहरी समझ विद्यमान है. उन्होंने जोर देकर कहा कि एक भाषा के रूप में हिंदी भी अन्य भारतीय भाषाओँ के समान विकसित हो रही है तथा हिंदी सत्ता की भाषा नहीं बल्कि जनता की भाषा रही है. भाषायी राजनीति पर चिंता व्यक्त करते हुए उन्होंने आगे कहा कि यदि राजनैतिक लाभ के लिए हिंदी से मैथिली, भोजपुरी, अवधी आदि को अथवा विद्यापति, तुलसी और जायसी को अलग कर दिया जाएगा तो उसके माध्यम से देश की संस्कृति को समझना संभव नहीं रह जाएगा जिससे हिंदी का ही नहीं हमारी राष्ट्रीय पहचान का भी नुकसान होगा इसलिए आज हिंदी भाषा की साहित्यिक योग्यता को पहचानने और उसमें निहित राष्ट्रीय मिथकों एवं सांस्कृतिक इतिहास को समझने की बड़ी आवश्यकता है. डॉ. देवराज ने याद दिलाया कि ‘’उत्तर आधुनिकता का जन्म निकारागुआ में हुआ था जो तीसरी दुनिया का देश है. 1912 में अमेरिका ने जबरदस्ती वहाँ के राजा को हटाकर सुनोजा नामक गुंडे को शासक बनाया. वहाँ के कवियों ने उसके खिलाफ कविताएँ लिखीं और अपनी कविताओं की उत्तर आधुनिक व्याख्या की थी और पहली बार ‘पोस्ट मोर्डनिज्म’ शब्द का प्रयोग किया था तथा यह शब्द जनहितैषी सरकार की स्थापना करने की परिकल्पना का द्योतक था.’’ उन्होंने संतोष व्यक्त किया कि लोकार्पित पुस्तक ‘उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया’ लीक से हटकर है क्योंकि इस पुस्तक की सामग्री अमेरिका और यूरोप द्वारा थोपी गई उत्तर आधुनिकता की जुगाली के खिलाफ है.

‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ का लोकार्पण करते हुए डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने कहा कि एक ओर यह किताब हिंदी भाषा के विकास के विविध आयामों की गहरी पड़ताल करती है तो दूसरी ओर ठोस राजभाषा तथा विवेकपूर्ण भाषा-नीति की जरूरत की. उन्होंने हिंदी के विकास में दक्खिनी के योगदान को रेखांकित करने और साथ ही दक्षिण भारत में हिंदी के पठन-पाठन और शोधकार्य तक का जायजा लेने के लिए लेखक की प्रशंसा की.

इसी क्रम में ‘ऋषभदेव शर्मा का कविकर्म’ शीर्षक पुस्तक पर बोलते हुए डॉ. अहिल्या मिश्र ने कहा कि यह पुस्तक ऋषभदेव शर्मा के उस कवि रूप को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती है जिसे उनके अध्यापक रूप और समीक्षक रूप ने जबरन ढक रखा है. इस पुस्तक में कवि ऋषभदेव शर्मा की सामाजिक चेतना, राजनैतिक चेतना, लोक चेतना, स्त्रीपक्षीय चेतना और जनपक्षीय चेतना का सोदाहरण विवेचन है. उल्लेखनीय है कि यह पुस्तक ऋषभदेव शर्मा के अट्ठावन वर्ष की आयु प्राप्त करने के संदर्भ में तैयार की गई है. इसमें कवि के लंबे साक्षात्कार के साथ साथ उनकी प्रतिनिधि कविताएँ और तेवरी काव्यांदोलन का घोषणा पत्र भी सम्मिलित हैं.

इस अवसर पर ‘साहित्य मंथन’, ‘श्रीसाहिती प्रकाशन’, ‘परिलेख प्रकाशन’, ‘कादम्बिनी क्लब’, ‘सांझ के साथी’, ‘विश्व वात्सल्य मंच’, शोधार्थियों और छात्रों द्वारा डॉ. ऋषभदेव शर्मा का सारस्वत सम्मान किया गया तथा प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने ऋषभदेव शर्मा के परिचय-पत्रक का लोकार्पण किया. अभिनंदन-भाषण देते हुए प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने कहा कि ‘’ऋषभदेव शर्मा के लेखन में विस्तार है, गहराई है. उनके लेखन में विशेष रूप से भाषा, साहित्य और संस्कृति के अनेक आयाम हैं. उनके साहित्य में भारतीय एकता की मौलिकता को देखा जा सकता है. हिंदी से इतर भारतीय भाषाओं के साहित्य के मर्म को उन्होंने स्वाध्याय द्वारा आत्मसात किया है. विशेष रूप से तेलुगु साहित्य के प्रति उनका अनुराग उल्लेखनीय है.’’

तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के शताधिक हिंदी प्रेमियों ने उपस्थित होकर इस समारोह को भव्य बनाया. संयोजिका डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा और डॉ. मंजु शर्मा ने लोकार्पित कृतियों का परिचय कराया तथा समारोह का संचालन डॉ. बी. बालाजी ने किया.

डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा 

‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख’ का लोकार्पण संपन्न

$
0
0

‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख’ का लोकार्पण संपन्न

हैदराबाद, 20 फरवरी 2016. (प्रेस विज्ञप्ति).

‘’अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की चर्चा पश्चिम में 1920 ई. के आसपास तब शुरू हुई जब एक देश के सैनिकों को शत्रु देश के सैनिकों की भाषा सीखने की आवश्यकता पड़ी. उस कार्य में ब्लूमफील्ड का विशेष योगदान रहा. 1964 में हैलिडे, मैकिंटोश और स्ट्रीवेंस ने ‘लिंग्विस्टिक साइंस एंड लैंग्वेज टीचिंग’ शीर्षक पुस्तक का सृजन किया. 1999 में विड्डोसन ने ‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान’ और ‘भाषाविज्ञान का अनुप्रयोग’ के बीच निहित भेद को स्पष्ट किया. ‘संप्रेषणपरक भाषाशिक्षण’ के आगमन के साथ-साथ अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान को ‘भाषा शिक्षण’ के अर्थ में रूढ़ माना जाने लगा. हिंदी की बात करें तो रवींद्रनाथ श्रीवास्तव ‘हिंदी अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान’ के जनक हैं. उन्होंने अपने समकालीनों के साथ मिलकर इसके अनुवाद विज्ञान, शैलीविज्ञान, पाठ विश्लेषण, समाजभाषाविज्ञान, मनोभाषाविज्ञान और कम्प्यूटेशनल भाषाविज्ञान जैसे अन्य विविध पक्षों को भी हिंदी में उद्घाटित किया. डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा की वाणी प्रकाशन से आई पुस्तक ‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख’ को इस परंपरा की तीसरी पीढ़ी में रखा जा सकता है.”

ये विचार यहाँ दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के खैरताबाद स्थित सम्मलेन-कक्ष में ‘साहित्य मंथन’ द्वारा आयोजित समारोह में ‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख’ नामक पुस्तक को लोकार्पित करते हुए अरबामिंच विश्वविद्यालय, इथियोपिया के भाषाविज्ञान के विभागाध्यक्ष प्रो. गोपाल शर्मा ने व्यक्त किए. उन्होंने लोकार्पित पुस्तक की लेखिका गुर्रमकोंडा नीरजा को साधुवाद देते हुए कहा कि यह पुस्तक इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि इसमें भाषिक अनुप्रयोग की पड़ताल के अनेक व्यावहारिक मॉडल उपलब्ध हैं. उन्होंने इस बात पर संतोष व्यक्त किया कि इस पुस्तक में विभिन्न विमर्शों की भाषा के विवेचन द्वारा ‘उत्तरआधुनिक अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान’ को भी पुष्ट किया गया है. उन्होंने अपील की कि आम आदमी के दैनंदिन जीवन से जुड़ी समस्याओं को लेकर भी अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की दृष्टि से काम होना चाहिए.

अपने अध्यक्षीय भाषण में इफ्लू के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने आर्येंद्र शर्मा, कृष्णमूर्ति और श्रीराम शर्मा जैसे भाषावैज्ञनिकों को याद करते हुए कहा कि समय और स्थान के ग्राफ के साथ भाषा के परिवर्तनों को देखना-परखना आज की आवश्यकता है तथा लोकार्पित पुस्तक इस दिशा में उठाया गया एक सही कदम है. उन्होंने कहा कि यह पुस्तक भाषा के अध्येता छात्रों, अध्यापकों, शोधार्थियों और समीक्षकों के लिए समान रूप से उपयोगी है क्योंकि इसमें सैद्धांतिक पिष्टपेषण से बचते हुए लेखिका ने हिंदी भाषा-व्यवहार विषयक प्रयोगात्मक कार्य के परिणामों को प्रस्तुत किया है.

आरंभ में वुल्ली कृष्णा राव ने अतिथियों का सत्कार किया तथा लेखिका गुर्रमकोंडा नीरजा ने विमोच्य पुस्तक की रचना प्रक्रिया के बारे में चर्चा की. वाणी प्रकाशन के निदेशक अरुण माहेश्वरी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए उन्होंने यह भी बताया कि यह पुस्तक प्रसिद्ध हिंदी-भाषावैज्ञानिक प्रो. दिलीप सिंह को समर्पित है जिन्होंने प्रत्यक्ष रूप से इस पुस्तक के प्रणयन की प्रेरणा दी है. इस अवसर पर प्रो. दिलीप सिंह ने भी दूरभाष के माध्यम से सभा को संबोधित किया और लेखिका को शुभकामनाएं दीं. ‘भास्वर भारत’ के संपादक डॉ. राधेश्याम शुक्ल, ‘साहित्य मंथन’ की परामर्शक ज्योति नारायण, ‘विश्व वात्सल्य मंच’ की संयोजक संपत देवी मुरारका और शोधार्थी प्रेक्के पावनी ने लेखिका का सारस्वत सम्मान किया.

कार्यक्रम के संयोजक प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने कहा कि लोकार्पित पुस्तक अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के अनेक आयामों की व्यावहारिकता को उद्घाटित करने के साथ-साथ उनका परीक्षण एवं मूल्यांकन भी करती है जिसमें लेखिका का गहरा स्वाध्याय और शोधपरक रुझान झलकता है.

इस समारोह में गुरुदयाल अग्रवाल, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, वेमूरि ज्योत्स्ना कुमारी, मटमरि उपेंद्र, जी. परमेश्वर, भंवरलाल उपाध्याय, डॉ. बी. सत्यनारायण, वुल्ली कृष्णा राव, डॉ. एम. रंगय्या, राजकुमारी सिंह, डॉ. सुनीला सूद, डॉ. बालकृष्ण शर्मा ‘रोहिताश्व’, डॉ. के. श्याम सुंदर, डॉ. मंजुनाथ एन. अंबिग, डॉ. बलबिंदर कौर, डॉ. गोरखनाथ तिवारी, डॉ. करन सिंह ऊटवाल, डॉ. बी. एल. मीणा, मनोज शर्मा, डॉ. मिथिलेश सागर, संतोष विजय मुनेश्वर, सुभाषिणी, संतोष काम्बले, के. नागेश्वर राव, किशोर बाबू, इंद्रजीत कुमार, आनंद, वी. अनुराधा, जूजू गोपीनाथन, गहनीनाथ, झांसी लक्ष्मी बाई, माधुरी तिवारी, सी.एच. रामकृष्णा राव, प्रमोद कुमार तिवारी, रामकृष्ण, दुर्गाश्री, जयपाल, अरुणा, नागराज, लेसली आदि ने उपस्थित होकर इस समारोह की गरिमा बढ़ाई.
– ऋषभदेव शर्मा
[पूर्व आचार्य-अध्यक्ष,
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद]

आवास : 208 -ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स,
गणेश नगर, रामंतापुर,
हैदराबाद – 500013.

मोबाइल : 08121435033.

चित्र परिचय :
1. ‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख’ का लोकार्पण करते हुए अरबामिंच विश्वविद्यालय, इथियोपिया के भाषाविज्ञान के विभागाध्यक्ष प्रो. गोपाल शर्मा.
2. सामूहिक चित्र
IMG_n lokarpan

अमरावती सृजन-पुरस्कार एवं सम्मान समारोह, सिलीगुड़ी -2015‏

$
0
0

हिंदी के प्रख्यात लेखक, पत्रकार शैलेंद्र चौहान को ”अमरावती सृजन पुरस्कार’’-2015 तथा समाज सेवी रतिराम शर्मा एवं आर.के. गोयल को ”अमरावती-रघुवीर सामाजिक-सांस्कृतिक उन्नयन सम्मान’’
Srijan puraskar Siliguri

सिलीगुड़ी से प्रकाशित पूर्वोत्तर भारत की एकमात्र चर्चित हिंदी मासिक पत्रिका ‘आपका तिस्ता-हिमालय’ द्बारा 28 फरवरी को शहर के बर्द्धवान रोड स्थित ऋषि भवन में अमरावती सृजन पुरस्कार एवं सम्मान समारोह का आयोजन सम्पन्न हुआ जिसमें शहर के अलावा बाहर से आये लेखक कवियों ने भागीदारी की। ‘आपका तिस्ता-हिमालय’ के प्रधान संपादक डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह ने अमरावती सृजन-पुरस्कार व सम्मानों की भूमिका रखते हुए देश में पुरस्कार वितरण के बारे में कहा कि पूर्वोत्तर की एक मात्र हिंदी मासिक पत्रिका आपका तिस्ता-हिमालय की ओर से दिये जा रहे इन पुरस्कार एवं सम्मानों के बारे में हम यहां साफतौर बताना आवश्यक समझते हैं कि यह पहल हमने विशेष प्रयोजन से शुरू की है। आप जानते हैं कि आजकल पुरस्कार व सम्मान देने का एक मंतव्य प्रेरित चलन प्रारंभ हुआ है। सत्ता एवं पूंजी के भ्रमजाल तथा प्रायोजित सम्मानों के बरक्स तिस्ता-हिमालय द्बारा दिये जा रहे ये सम्मान इससे बिल्कुल इतर जन-सामाजिक सरोकारों तथा जन-संघर्ष के लिए प्रतिबद्ध साहित्यकर्मी एवं नागरिक दायित्व के निष्ठापूर्ण निर्वाहन के लिए हैं जिसे हम बखूबी कर पा रहे हैं। ऐसे सम्मान उन्हीं लोगों को दिया जाना चाहिए जो देश व समाज की बेहतरी के लिए प्रतिबद्ध हैं। उन्होंने कहा कि सिलीगुड़ी व उत्तर बंगाल ने उन्हें एक मजबूत जमीन दी और भरपूर प्यार दिया जिसका वे ऋण इस सम्मान के जरिए चुका रहे हैं।

इस समारोह में कवि व समालोचक देवेंद्रनाथ शुक्ल ने शैलेंद्र चौहान का परिचय देते हुए कहा शैलेन्द्र चौहान धरती के लेखक हैं। उनका पहला संकलन ‘नौ रुपये बीस पैसे के लिए’ का नामकरण 80 के दशक में जहां वह सेवारत थे वहां एक बिजली मजदूर की न्यूनतम सरकारी मजदूरी थी के ऊपर लिखी गयी। शैलेंद्र का यह काव्य संकलन यूटोपिया और व्यवहारिकता के अन्तर्संघात से उत्पन्न कुछ दृश्य-अदृश्य बिम्बों और जटिलताओं से मुठभेड़ करता है।

शैलेन्द्र चौहान ने अपने संबोधन में कहा कि पत्रकारिता एवं सृजनशील साहित्य की रचना में अनेकों अन्य लोग भी सक्रिय हैं। यह सम्मान दरअसल उन्हें मिलना चाहिए था। लेकिन वे विनम्रतापूर्वक इस सम्मान को स्वीकार कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि लेखक व पत्रकारों को समाज व राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्ध रहते हुए गरीब व वंचित वर्ग के हित में रचनाधर्मिता का दायित्व निभाना चाहिए। मुनाफाखोरी की तेजी से बढ़ रही प्रवृत्ति के बीच समाज का जिस तेजी से

ध्रुवीकरण हो रहा है वह चिंतनीय है। हमारी सहनशील संस्कृति की राष्ट्रीय पहचान आज कठिन परीक्षा की घड़ी से गुजर रही है। हमें सामुदायिक सरोकारों पर अधिक बात करने की आवश्यकता है। मेरी कविता और पत्रकारिता भारतीय जनमानस के सुख-दुख, संघर्ष और सांस्कृतिक रुचि को सहज रूप में अभिव्यक्त करने का उपक्रम है। शैलेन्द्र चौहान को सिलीगुड़ी महाविद्यालय के अंग्रेजी विभाग के प्रो. विचारक अभिजित मजूमदार, साहित्यकार डॉ. भीखी प्रसाद ‘वीरेन्द्र’ एवं नवगीतकार बुद्धिनाथ मिश्र द्बारा सम्मानित किया गया। प्रो. अभिजित मजूमदार ने शैलेंद्र चौहान के विचारों से सहमति जताते हुए देश में जनवाद और राष्ट्रवाद को विकृत करने की फासीवादी सोच पर चिंता जताई।

तदुपरांत समाज सेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के रतिराम शर्मा एवं उद्योगपति राम कुमार गोयल को वरिष्ठ पत्रकार-विचारक निधुभूषण दास ने उत्तरीय पहनाकर सम्मानित किया। लेखक डा. ओम प्रकाश पाण्डेय ने मानपत्र और मेयर अशोक भट्टाचार्य ने समारोह में उन्हें स्मृति चिह्न् प्रदान किया। अपने संबोधन में उन्होंने हिंदी भाषा व साहित्य के विकास के लिए छोटी-छोटी बोलियों को प्रोत्साहित करने पर जोर दिया। साथ ही उन्होंने पत्रिका की इस पहल की सराहना करते हुए सम-सामयिक स्थितियों में सांस्कृतिक चर्चा को महत्वपूर्ण बताया। उद्योगपति आर.के. गोयल ने सम्मान के लिए आभार जताते हुए कहा कि यह सम्मान उन्हें सामाजिक कार्य के लिए बराबर प्रोत्साहित करता रहेगा। उन्होंने अपने संबोधन में लोक मंगल की कामना की।

अगले चरण में डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह द्बारा रचित, मुंतज़िर की आत्मकथा ‘छाया दी’ का लोकार्पण किया गया। साथ ही ‘आपका तिस्ता-हिमालय’ के 71 वें अंक का भी विमोचन कवयित्री रंजना श्रीवास्तव द्बारा किया गया। बिहार के पूर्व माकपा विधायक रामाश्रय सिंह ने कहा कि वर्तमान जटिल राजनैतिक परिस्थिति में साहित्यकारों को जन-सरोकारों से लैस साहित्य का सृजन करना चाहिए। नवगीतकार डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र ने कहा कि राष्ट्रीय चेतना को

संकीर्णता में सीमित किया जा रहा है। प्रो. सुनील कुमार द्बिवेदी ने कहा कि मुंतज़िर की आत्मकथा छाया दी एक ऐसा उपन्यास है जो समय को आलोचनात्मक दृष्टि से समझने का अवसर प्रदान करता है। प्राध्यापिका पूनम सिंह ने मुंतज़िर की आत्मकथा ‘छाया दी’ पर बोलते हुए उसमें निहित समय के यथार्थ को रेखांकित किया। प्रो.अजय साव ने पुस्तक पर बोलते हुए कहा कि यह पुस्तक एक ओर आत्मकथा का स्वाद देती है तो दूसरी ओर यह उपन्यास के रूप में हमारा ध्यान आकृष्ट करती है। यह दोनों के द्बंद्बात्मक स्वरूप को अभिनव ढंग से प्रस्तुत करते हुए समय को प्रत्यभिज्ञान द्बारा रूपायित करती है। समारोह को सी.बी. कार्की, निधु भूषण दास, पूर्व विधायक रामाश्रय सिंह और महावीर चाचान ने भी संबोधित किया। अंत में भीखी प्रसादने अध्यक्षीय भाषण के साथ समारोह का समापन हुआ।

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह

संपादक : आपका तिस्ता हिमालय

अपर रोड, गुरुंग नगर,

पो. प्रधान नगर , सिलीगुड़ी – 734 003 (प.बं )

कश्मीर और क्रिकेट

$
0
0

कश्मीर में क्रिकेट खेल को लेकर भड़काने वाली बातों का इतिहास कोई नया नहीं है।हमारे समय में भी भारत-पाक क्रिकेट खेल के दौरान यदि पाक टीम भारत के हाथों हार जाती थी तो स्थानीय लोगों का गुस्सा ‘पंडितों’ पर फूट पड़ता था।उनके टीवी/रेडियो सेट तोड़ दिए जाते,धक्का मुक्की होती आदि।भारत टीम के विरुद्ध नारे बाज़ी भी होती।और यदि पाक टीम जीत जाती तो मिठाइयां बांटी जाती या फिर रेडियो सेट्स पर खील/बतासे वारे जाते।यह बातें पचास/साठ के दशक की हैं।तब मैं कश्मीर में ही रहता था और वहां का एक स्कूली-कॉलेज छात्र हुआ करता था।(भारतीय टीम में उस ज़माने में पंकज राय,नारी कांट्रेक्टर,पोली उमरीगर,गावस्कर,विजय मांजरेकर,चंदू बोर्डे,टाइगर पड़ौदी,एकनाथ सोलकर आदि खिलाड़ी हुआ करते थे।)कहने का तात्पर्य यह है कि कश्मीर में विकास की भले ही हम लम्बी-चौड़ी दलीलें देते रहें,भाईचारे का गुणगान करते रहें या फिर ज़मीनी हकीकतों को जानबूझकर दबाये रखें,मगर असलियत यह है कि लगभग चार/पांच दशक बीत जाने के बाद भी हम वहां के आमजन का मन अपने देश के पक्ष में नहीं कर सके हैं।सरकारें वहां पर आयीं और चली गयीं मगर कूटनीतिक माहौल वहां का जस का तस है। कौन नहीं जानता कि वादी पर खर्च किया जाने वाला अरबों-खरबों रुपैया सब अकारथ जा रहा है।’नेकी कर अलगाववादियों की जेबों में डाल’ इस नई कहावत का निर्माण वहां बहुत पहले हो चुका था।यह एक दुखद और चिंताजनक स्थिति है और इस स्थिति के मूलभूत कारणों को खोजना और यथासम्भव शीघ्र निराकरण करना बेहद ज़रूरी है।कश्मीर समस्या न मेरे दादाजी के समय में सुलझ सकी, न पिताजी के समय में ही कोई हल निकल सका और अब भी नहीं मालूम कि मेरे समय में यह पहेली सुलझ पाएगी या नहीं!आगे प्रभु जाने।

डॉ0शिबन कृष्ण रैणा
Senior Fellow(Hindi),Ministry of Culture
(Govt.of India)
2/537(HIG)Aravali Vihar,
Alwar(Rajasthan)
301001
Contact:09810265348 and 01442360124

Viewing all 159 articles
Browse latest View live